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28 Aug 2023 · 7 min read

असुर सम्राट भक्त प्रह्लाद – गर्भ और जन्म – 04

जिस समय महर्षि कश्यप की अदिति आदि अन्यान्य सभी धर्मपत्नियों में आदित्य आदि देवताओं की उत्पत्ति हो चुकी थी और उनके प्रताप से सारा जगत् उनका ही अनुचर हो रहा था, उस समय जैसा कि हम पहले कह आये हैं चाक्षुष नामक छठवाँ मन्वन्तर था और उसके अन्तर्गत था सत्ययुग। भगवद इच्छा बड़ी प्रबल है। युग और मन्वन्तर उसके अनुचर हैं। इसलिये सत्ययुग में और महर्षि कश्यप-जैसे परम तपस्वी महर्षि के आश्रम में भी सत्ययुग के अनुरूप नहीं, कलियुग के अनुरूप घटना घट गयी। भगवान् के पार्षदों को ‘जय’ और ‘विजय’ को— ब्रह्मशाप हो चुका था और वे वैकुण्ठपुरी से पतित हो चुके थे। पूर्वकथित कारणों के अनुसार असुर कुल में उनका अवतीर्ण होना भी आवश्यक था। अतएव भगवदिच्छा से ही पवित्र सत्ययुग में अपवित्र कलियुग के‌ अनुरूप घटना का होना आश्चर्यकारक नहीं, स्वाभाविक था।
सन्ध्या का समय था। पतिव्रता ‘दिति’ ऋतुस्नान से निवृत्त हो चुकी थी और महर्षि कश्यप अपनी यज्ञशाला में सन्ध्योपासन करने के लिये प्रस्तुत थे। भगवदिच्छा से पतिव्रता ‘दिति’ के हृदय में सन्तति-सुख की इच्छा उत्पन्न हुई और वह अधीर हो यज्ञशाला में जा पहुँची। यज्ञशाला में आती हुई धर्मपत्नी को देख कर महर्षि कश्यप के मन में विस्मय उत्पन्न हुआ और मन-ही-मन वे सोचने लगे कि, इस समय साध्वी ‘दिति’ का यहाँ आना अकारण नहीं है। इतने में ‘दिति’ महर्षि कश्यप के सम्मुख जा पहुँची। पतिव्रता दिति को देख कर महर्षि कश्यप ने कहा— “हे सुभगे! इस समय तुम इस यज्ञशाला में कैसे आयी और तुम्हारा मुखमण्डल मलिन सा क्यों हो रहा है?”
दिति– “प्राणनाथ! आप तो त्रिकालदर्शी हैं। क्या आपसे मेरे आने का कारण छिपा हुआ है? भगवन्! आप चराचर के जन्मदाता और दूसरे प्रजापति के समान मेरे स्वामी हैं। आपकी कृपा से मेरी समस्त सपत्नियाँ (सौतें), मेरी बहुसंख्यक बहिनें पुत्र-पौत्रादि सन्तति-सुख से सम्पन्न हो रही हैं, किन्तु मुझ हतभाग्या पर आपने अद्यावधि (अभीतक) ऐसी कृपा नहीं की। यद्यपि सपत्नियों के सन्तति-सुख को देख, मुझे बहुत दिनों से दुःख हो रहा था और उनके अतुल पराक्रम एवं सुख को देख कर मन में जलन सी हो रही थी, तथापि लज्जा और भयवश मैंने अद्यावधि आपसे कुछ भी नहीं कहा था; किन्तु इस समय मैं अधीर हो रही हूँ और मेरी प्रार्थना यही है कि, आप मुझ पर कृपा करें और मुझे भी सन्तति-सुख का सौभाग्य प्रदान करें।”
कश्यपजी– “प्राणप्रिये! तुमने जो कुछ कहा, उसको मैं प्रथम ही से जानता था। स्त्रियों का सपत्निव्यवहार मुझसे छिपा हुआ नहीं। मैं चाहता हूँ कि, तुम भी अपनी बहिनों और सपत्नियों के समान ही पुत्र-पौत्रादि सुख से सम्पन्न हो जाओ किन्तु समय पर। शीघ्र ही ऐसा समय आनेवाला है कि तुम्हारा यह आन्तरिक खेद मिट जायगा और मनोरथ पूर्ण होगा। इस समय मैं सन्ध्योपासन करने जा रहा हूँ। तुम भी जाकर अपना कार्य करो। भगवान् तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे।”
दिति– “जीवनाधार स्वामिन्! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है किन्तु आज ही मैं ऋतुस्नान से निवृत्त हुई हूँ अतएव आपसे प्रार्थना कर रही हूँ।”
कश्यपजी– “हे सुभगे! धैर्य धारण करो। हम तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करेंगे। जिस स्त्री के द्वारा केवल अर्थ, धर्म और काम ही नहीं, प्रत्युत मोक्ष भी प्राप्त होता है, उस स्त्री के कार्य को कौन ऐसा अज्ञानी है जो श्रद्धा और प्रेम के साथ न करेगा? गार्हस्थ्य जीवन का मुख्य अंग ही गृहिणी है, उसके बिना गृहस्थाश्रम का पालन करना ही असम्भव है और गृहस्थाश्रम के‌ बिना चारों वर्गों और चारों आश्रमों का काम नहीं चल सकता। गृहस्थाश्रम के बिना चराचर की सृष्टि नष्ट-भ्रष्ट हो सकती है और मानव-जीवन व्यर्थ हो जाता है। अतएव कौन ऐसा मूर्ख होगा जो गृहस्थ की मूलभूत अपनी धर्मपत्नी के सन्तानोत्पादन-सम्बन्धी मनोरथ को पूर्ण करने की चेष्टा न करे? हे मानिनि समस्त श्रेयस्कामों के लिये जिसको अर्धांगिनी कहते हैं, जिस पर अपनी गृहस्थी का सारा भार रख कर स्वयं निश्चिन्त होकर संसार में विचरण करते हैं उसकी इच्छा को पूर्ण करने की कौन चेष्टा न करेगा? किसी भी आश्रम में न जीती जाने वाली दुर्जेय इन्द्रियों को, उनके विषयरूपी प्रबल शत्रुओं को जिस धर्मपत्नी की सहायता से, जिसके सहारे पुरुष, किले में बैठे हुए किले के स्वामी जैसे अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दस्युओं, चोरों और डाकुओं को परास्त करने में समर्थ होते हैं, वैसे ही पराजित करने में सर्वथा समर्थ होते हैं उसकी कामना को संसार में कौन ऐसा अज्ञानी होगा जो पूर्ण न करे? किन्तु जरा ठहरो, दो एक घड़ी के पश्चात् मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा।”
दिति– “भगवन्! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। मैं आपके शरण में आयी हूँ। नाथ! शरणागत का पालन करना सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है। फिर आप जैसे महापुरुषों से अधिक कहना व्यर्थ है, आप तो अन्तर्यामी और त्रिकालदर्शी हैं। स्वामिन्! चाहे त्रैलोक्य के सारे सुख प्राप्त हों, किन्तु जो स्त्री अपने प्राणपति से सम्मानित नहीं, उसका संसार में आदर नहीं होता और उसका यश नहीं फैलता। जब तक स्त्री के पुत्र नहीं होते, तब तक उसका ‘जाया’ नाम ही सार्थक नहीं होता है। इसी से ‘तज्जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः’ इस श्रुति को लोग बड़ी श्रद्धा के साथ उच्चारण करते हैं, अतएव मैं विनीतभाव से आपके चरणों में प्रार्थना करती हूँ आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।”
कश्यपजी– “हे भामिनि! इस समय तुम सापत्न्यद्वेष से विवेक-शून्य हो रही हो और सन्ध्याकाल की घोर बेला की ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं होता, किन्तु तुम्हारे समान मैं विवेकशून्य नहीं हुआ हूँ। अतएव कुछ समय ठहरो ‘हे प्रियतमे! मैं तुम्हारे उपकारों, तुम्हारी सेवाओं और तुम्हारे अधिकारों को भली भाँति जानता और मानता हूँ। यद्यपि मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारे उपकारों का बदला मैं इस जीवन में चुकाने में असमर्थ हूँ तथापि इस समय मैं जो तुमको बारम्बार ठहरने के लिये कहता हूँ इसका विशेष कारण है। हे गृहेश्वरि!‌ यह सन्ध्या का घोरतम समय है। इस काल को शास्त्रकारों ने महाघोरतम कहा है क्योंकि इस समय भगवान् भूतनाथ शंकर अपने भूतगण को साथ ले वृषभ पर सवार हो, संसारभर मे विचरण करते हैं। श्मशान के पवन से विताड़ित धूम्रज्योति के समान जिनकी बिखरी एवं प्रकाशमान जटाएँ शोभायमान हैं तथा सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर में चिता की भस्म से जिनकी शोभा द्विगुणित बढ़ रही है, वे ही तुम्हारे देवर देवादिदेव महादेव अपने चन्द्र, सूर्य एवं अग्निरूपी त्रिनेत्रों से सारे चराचर को देख रहे हैं। सुन्दरि! भगवान् भूतभावन शंकर का संसार में न कोई स्वजन है, न शत्रु है, न आदरणीय है और न निन्दनीय है, अतएव इस घोरतम समय में शास्त्रकारों ने आहार, मैथुन, अध्ययन एवं शयन का निषेध किया है। समस्त ब्राह्मण समुदाय उनकी चरण-रज की माया का ही उपासक है और उनकी माया के विभूतिरूपी प्रसाद को प्राप्त करके वह अपने आपको कृतकृत्य समझता है, अतएव इस घोरतम समय को बीत जाने दो। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा।”
भगवदिच्छा की वशवर्तिनी साध्वी दिति ने अपने हठ को नहीं छोड़ा और विवश होकर महर्षि कश्यप ने भाग्यरूपी सर्वशक्तिमान् परमात्मा को प्रणाम करके उसका मनोरथ पूर्ण किया‌। तदनन्तर महर्षि कश्यपजी ने दिति से कहा कि ‘हे कामिनि! तुमने भावी के वशीभूत होकर हठात् इस घोरतम सन्ध्याकाल में गर्भ धारण किया है। इससे तुम्हारे उदर से दो पुत्र उत्पन्न होंगे, जो बड़े ही भयंकर होंगे। हे भामिनि! तुमने हमारी आज्ञा नहीं मानी। क्योंकि तुम्हारा चित्त भी देवद्रोह से अशुद्ध था‌। सन्ध्या का घोरतम समय था और सबसे बड़ी भयंकर बात तो यह है कि तुमने अपने हठ से देवादिदेव महादेव का अनादर किया है। अतएव तुम्हारे भावी दोनों ही पुत्र देवद्रोही, विष्णुद्रोही, अधम और अमंगलरूप होंगे और जब उनका उत्पात बढ़ेगा तब साक्षात् भगवान् लक्ष्मीपति उनको मारेंगे।’ स्वामी के इन वचनों को सुन कर पतिव्रता दिति ने बड़े ही विनीतभाव से कहा कि हे स्वामी! मैं अबोध अबला हूँ और काम, क्रोध एवं द्वेषादि दोषों की आकर हूँ। अतएव जो कुछ मुझसे अपराध हुआ है, उसे आप क्षमा कीजिये और आशुतोष भगवान् शंकर को मेरी विनती सुनाइये कि, वे मेरे पुत्रों का कल्याण करें और गर्भ को सफल एवं सबल बनावें।”
कश्यपजी– “प्रियतमे ! तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। भावी बड़ी प्रबल है। उसी के वशीभूत होकर तुमने प्रबल हठ किया और हमने उस हठ को स्वीकार किया। अवश्य ही गर्भाधान के समय तुम्हारा ध्यान अपने सापत्न्य पुत्र देवों के प्रति द्रोह से पूरित था और हमारा ध्यान भगवान् शंकर के घोरतम समय की ओर था। अतएव जो पुत्र होंगे वे देवताओं के घोर शत्रु होते हुए भी भगवान् शंकर के अनन्य भक्त होंगे। उनको भगवान् लक्ष्मीनारायण अपने हाथों से मारेंगे। यह भी कम प्रसन्नता की बात नहीं है। इतना ही नहीं, उन पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र का जो उत्तराधिकारी तुम्हारा पौत्र होगा, वह परमभागवत और अपने कुल की कीर्ति कौमुदी को तीनों लोक और चौदहों भुवन में फैलानेवाला होगा।”
अपने स्वामी की अमृतमयी वाणी सुन कर गर्भवती दिति बड़ी प्रसन्न हुई और उसकी अपने पुत्रों की दुष्ट प्रकृति की भावी चिन्ता मिट गयी। गर्भाधान होने के समय से ही संसारभर में न जाने कितने अपशकुन होने लगे। देवताओं को भय प्रतीत होने लगा और दिति को भी तरह-तरह के भयावने स्वप्न दिखलायी देने लगे। साधारण समय से बहुत अधिक दिनों के पश्चात् दक्षदुहिता सती ‘दिति’ के दो पुत्र उत्पन्न हुए। पहले हिरण्याक्ष पैदा हुआ। उसके पश्चात् हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ। शास्त्रानुसार गर्भ की ज्येष्ठता के कारण हिरण्यकशिपु ही ज्येष्ठ माना गया, किन्तु लौकिक दृष्टि से लोग हिरण्याक्ष को ज्येष्ठ मानने लगे। जिस समय ये दोनों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु पृथ्वी पर गिरे, उस समय तीनों लोक और चौदहों भुवन काँप उठे। दिव्य, आन्तरिक्ष और भौतिक अपशकुन होने लगे। स्वर्ग में इन्द्र का सिंहासन हिल गया और देवताओं में भयंकर हलचल मच गयी। तरह-तरह के अमंगलसूचक उत्पातों और अपशकुनों को देख कर लोग ‘विश्वविप्लव’ (विश्व-आपदा) का-सा भविष्य अनुमान करने लगे। ऐसी भयंकर परिस्थिति को देख कर उनकी माता दिति के हृदय में बड़ा ही त्रास उत्पन्न हुआ और वह सोचने लगी कि हे भगवन्! क्या अनर्थ होनेवाला है? क्या मेरे गर्भ से उत्पन्न ये पुत्रद्वय, संसार के सचमुच त्रासक, अपने कुल की मर्यादा के नाशक और देवद्रोही होंगे? दिति को चिन्तित देख, महर्षि कश्यप ने दोनों पुत्रों के पूर्वजन्म की कथा के साथ सारे रहस्य का उद्घाटन किया, तब उनकी चिन्ता दूर हुई। स्नेहमयी माता अपनी स्वाभाविकी दयालुता, वत्सलता के अनुसार पुत्रों के पालन-पोषण में लग गयी।
महर्षि कश्यप ने पुत्रों के यथासमय समस्त संस्कार विधि-पूर्वक करवाये। नामकरण-संस्कार के समय ज्येष्ठ पुत्र का नाम हिरण्यकश्यपु तथा छोटे का नाम हिरण्याक्ष रखा गया। दोनों ही बड़े प्रतापी और पराक्रमी प्रतीत होने लगे। शनैः शनैः हिमालय के समान दीर्घ एवं कठिनकाय होकर दोनों बढ़ने लगे और इन दोनों ऋषिकुमार दैत्यों के आतंक से सारे मर्त्यलोकवासी आश्चर्यान्वित और देवलोकवासी भयभीत हो गये।

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