[[[गप्पू काका]]]
कथा :
#गप्पू_काका
गप्पू काका के बड़े भाई के तीन बच्चे शहर से गाँव अपने घर स्कूल की गर्मी की छुट्टियों में आए हुए थे !
यहाँ भी मझिले भैया के दो बच्चे थे ! टोला टपड़ी के भी बहुत सारे बच्चे थे ! फिर क्या…? जब शहरी बच्चों को गाँव के बच्चों की संगत मिली तो उनका भी बचपना जाग उठा और दिन भर गंवई बच्चों के साथ खेत-खलिहानों में खेलते-कूदते रहे और फालतू बच्चों की टोलियों के संग घूमते- फिरते रहे !
अब तो सुबह का नाश्ता लेने के बाद बच्चों का केवल यही काम बचा रह गया, और दोपहर का भी भोजन लेने के बाद भी यही काम रह गया !
पर इन दोनों कामों में फर्क सिर्फ इतना था कि नाश्ते के बाद घर के आसपास ही खेलते रहते थे लेकिन भोजन के बाद तो कहीं दूर बाग-बगीचों में निकल जाते थे और जी भर खेल-कूदकर शाम तक घर आते थे !
शहरी बच्चे जो दिन-रात किताबों से चिपके रहते थे यहाँ आते ही जैसे उनका किताबों से नाता टूट गया और वे यह भूल गये कि पढ़ाई का कितना बोझ उनकी पीठ पर लदा हुआ है !
अब घर के सभी बच्चों का दिन भर खेलना और शाम होते ही गप्पू काका से चिपक जाना, फिर देर रात तक उनसे चिपके रहना उनकी जैसे दिनचर्या ही बन गई !
गप्पू काका भी बच्चों में मिलकर बच्चे बन जाते थे ! और कुछ न कुछ बच्चों को कहते सुनाते रहते थे ! यही कारण था कि वे बच्चों के बीच बहुत मशहूर थे !
आज रोज की ही तरह रात्रि भोजन के बाद
घर के सारे बच्चे सोने के लिए छत पर
इकट्ठे हो गए और गप्पू काका की प्रतीक्षा करने लगे कुछ नया सुनने के लिए ! भोजन करके गप्पू काका थोड़ी देर में अपने बिस्तर पर पहुँचे !
सारे बच्चे चिल्लाने लगे – “आ गए, आ गए ! गप्पू काका आ गए !”
अब बच्चे जिद्द करने लगे गप्पू काका से कुछ सुनाने के लिए !
जैसे गप्पू काका तैयार ही थे, उन्होंने सुनाना शुरू किया – “एक बार मैं पास के जंगल के पार वाले गाँव में किसी काम से गया हुआ था ! आते समय सूरज ढूब गया, चारों ओर अँधेरा घिर आया ! चाँद भी नहीं निकला कुछ उजाला देने के लिए ! शायद अंहरिया रात थी ! रास्ता तक नहीं सूझ रहा था ! मैं आँखें पसार-पसार कर नीचे देखते हुए अपने कदम बढ़ाए जा रहा था कि तभी मुझे सामने रास्ते पर एक खूँखार शेर दिखाई दिया ! अब तुम सब पूछोगे कि अँधेरे में मुझको शेर कैसे दिखाई दिया तो सुनो ! मेरे पीछे से कोई टॉर्च की लाईट-सी रौशनी सामने की ओर आ रही थी ! उसी के उजाले में मैंने उस शेर को देखा और देखते ही मैं सिहर गया ! तभी पीछे से आवाज आई —
‘डरो मत ! बढ़ते रहो !’ आवाज सुनकर मैं
चौंका और पीछे की ओर देखा तो जो देखा उसे देखकर मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए !”
बच्चे तो जैसे डर ही गए काका का किस्सा सुनकर, सबने बोला — ‘फिर क्या हुआ गप्पू काका ?’
गप्पू काका ने आगे कहना शुरू किया — “बच्चो ! टॉर्च दिखाता हुआ जो चीज थी वो भूत था ! अब क्या, आगे शेर पीछे भूत, मैं गया था अब तो लुट ! मेरी अक्ल को कुछ भी नहीं सूझ पा रहा था, तभी ‘भूत’ ने कहा कि ठहरो ! शेर तुम्हें मारकर खा जाएगा ! मैं तुम्हारे शरीर में घुस रहा हूँ ! जब मैं तुम्हारे शरीर में घुस जाऊँगा तो फिर तुम्हारा काम खत्म, तब शेर से बचने का सारा काम मैं करूँगा ! ‘भूत’ ने तब टॉर्च फेंकी और जब तक खूँखार शेर मेरी तरफ झपटता कि ‘भूत’ मेरे अन्दर समा गया !
और फिर क्या…., शेर झपटा फिर मैं पीछे भागा ! भागते-भागते जब मैं थकने लगा तो मैं एक बड़े पेड़ पर चढ़ गया ! वहाँ थोड़ा सुसताया, अभी सुस्सता ही रहा था कि
देखा शेर पेड़ पर चढ़ आया, मैं घबराया, पीछे की ओर घसका, तभी शेर लपका ! मैं तब गिरते-गिरते बचा, लेकिन शेर भी बब्बर शेर था, नहीं माना ! फिर मैं एक डाल पकड़कर नीचे कूद गया, नीचे कूदते ही शेर भी मुझ पर जम्प लगाया !
मैं भागा…..वो पीछे मैं आगे, मैं भागता रहा…..भागता रहा………..भागते-भागते एक छोटा, मगर गहरा एक नाला आया ! मैं आव देखा ना ताव, झट ऊँची छलांग लगा दी ! अब मैं इस पार, शेर उस पार ! मेरी जान में जान आई !
तभी मेरे अंदर का ‘भूत’ बोला —
“मैं अब बाहर आ रहा हूँ !” वह बाहर आया ! पर मैं अभी उससे डरा हुआ था ! मगर उसने कहा, — “मुझसे डरो मत, मैं किसी का नुकसान नहीं करता, मैं जहाँ तक हो सकता, राहियों का भला करता हूँ !”
इतना कहकर उसने अपना एक हाथ हवा में लहराया, मैंने देखा उसके हाथ में एक टॉर्च
थी ! उसने वह टॉर्च मुझे दी और कहा कि इस टॉर्च की मदद से तुम अपने घर तक आराम से पहुँच जाओगे !
…………..अब जाओ ! वह फिर लापता हो गया ! देर रात तक मैं अपने घर पहुँच गया !
गप्पू काका से किस्सा सुनते सुनते कुछ बच्चे अब तक सो चुके थे !
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दिनेश एल० “जैहिंद”