खेल
लघुकथा
शीर्षक – खेल
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“अरी मुनिया जल्दी चल खेलने, रमिया, छुटकी, सोहना, राजू सभी आ गये हैं चौंतरे पे l किल्ली डंडा और लंगड़ी खेलेंगे” l
” हमें नहीं जाना कहीं l बापू आता होगा खेत से थका हारा l चौका भी लगाना है l रोटी और तरकारी भी बनानी है l तुम्हारी तो माई बना के खिलाती है l मेरी तो माई मर गई.. बापू बोलता है कि वो अब कभी नहीं आयेगी l”
“तू अब कभी नहीं खेलेगी हमारे साथ ?”
“जल्दी से काम कर लू फिर खेलेंगे”
” मुनिया हम लोग घर – घर खेले l तेरा काम भी हो जाएगा और तेरे साथ खेल भी लेंगे”
“कैसे?”
“अभी रुक”
और देखते देखते रमिया, मुनिया, छुटकी, सोहना और राजू,,,,, झाड़ू, चौका, पटा, बेलन, आटा, रोटी, और बर्तनों के साथ घर घर खेलने लगे l कुछ ही समय में मुनिया का सारा काम हो गया l मुनिया बहुत खुश थी
थक-हार के खेत से लौटे बापू ने जब आठ साल की मुनिया को घर संभालते देखा तो उसकी आँखे नम हो गयी और आसमान की और मुह करके बोल पड़ा – “देखती है मुनिया की माई, तेरी बिटिया सयानी हो गई”
राघव दुबे
इटावा (उo प्रo)
8439401034