खुद को बुध्दिमान
खुद को बुध्दिमान समझने से इन्सान बुध्दिमान नही हो जाता। जिस प्रकार दूसरों को पागल समझने से कोई इन्सान पागल नही हो जाता।वास्तविकता हमेशा वो ही
होती है जो होती है।वो हमारे शोचने समझने से कभी नही बदलती है। जो इन्सान जैसा है वो वैसा ही रहेगा।
हमारे कहने शोचने तथा समझने से कुछ नही होता है
या दूसरों के कहने शोचने तथा समझने से कुछ नही होता है।वास्तविकत्ता हमेशा जो होती है हमेशा वो ही रहती है। बदलती सिर्फ हमारी शोच है। हमारे विचार है।
ये केवल एक भ्रम है जो खुद को बुध्दिमान समझे बैठे है और दूसरों को पागल
जिसे आप पागल समझे बैठे है आप तो उससे भी कही
नीचे है ओर ये ही वास्तविकता है। जिसे आप मानना नही चाहते है।
इसलिये अपने को ऊपर रखने के लिए अपनी नजरों तथा दूसरों की नजरों मे अपने को ऊपर रखने के लिये हम दूसरों को पागल समझते है।खुद के अकलमन्द ना होते हुये भी हम खुद को बुध्दिमान समझते है। ऐसे लोगो की संख्या ज्यादा नही सबसे ज्यादा है।कम तो वे लोग है जो बुध्दिमान है पर दुनिया की नजरों मे नही है।
अगर मैं बुध्दिमान नही हूँ और खुद को बुध्दिमान समझने लगू तो क्या मैं बुध्दिमान हो जाऊगा नही ना।
अगर कोई व्यक्ति बुध्दिमान है और कोई उसे किसी कारण वस उसे पागल समझने लगे तो क्या वह पागल हो जायेगा क्या ,नही ना।.
Swami ganganiya