खुद को पुनः बनाना
खुद को पुनः बनाना !
बिखर गया जो कतरा-कतरा
उसको फिर से आज सजाना !
फेक दिया जो टुकड़े करके
उसे जोड़कर फिर अपनाना !
बचपन मे जैसे फूलों को
चुनती थी ,
अपने बिखरे सपनों को नित
बुनती थी ,
माँ बाबा का सपना लेकर
बैठ गई थी डोली में ,
इकतरफा कोई रिश्ता भी
अब है नहीं निभाना !
जहां प्रेम , इज्जत के बदले
गाली का उपहार मिले तो ,
अपना धीरज कभी न खोना
ना कोई उम्मीद लगाना ।
त्याग और बलिदान तुझी में
ये बातें खुद भूल न जाना ,
मगर सितम भी सहना मत तुम
दुर्गा बनकर है दिखलाना !
सांसों की लड़ियां ना टूटे
रिश्ते टूटे देर न करना ,
पतिव्रता बनने के पीछे
सती नही तुझको कहलाना !
ना करना परवाह किसी की
अपना निर्णय खुद ही करना ,
सहन शक्ति जब सीमा तोड़े
झूठे बंधन में मत रहना !
अगर उजाला कोई छीने
जो अबतक तेरे हिस्से का ,
उस अंधियारे को ठुकराकर
नई राह पर कदम बढ़ाना !
द्वार पिता का सदा खुला है
ये बातें तुम भूल न जाना ,
आस लगाए बैठी है जो
मां के सीने से लग जाना !
✍️”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक