खिला है
गीतिका
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प्यार को आधार सच्चा जब मिला है।
हर्ष से मुखड़ा कमल बनकर खिला है।
घर पिया के जा रही नव यौवना।
पूर्ण होता चाहतों का सिलसिला है।
जिस तरह डोली सजी महके गुलों से।
प्रिय जनों के साथ बढ़ता काफिला है।
शुभ यही उत्सव सभी के मन सुहाता।
शेष अब रहता नहीं कोई गिला है।
भावनाओं का समुंदर है मनों में।
डूबती पाषाण की कोई शिला है।
अश्व पर दूल्हा सजी बारात लाया।
किन्तु दुल्हन पालकी में शर्मिला है।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य