#खिलते हैं फूल बसंत बहार
🙏 जब मैंने कहीं यह पढ़ा कि एक फिल्मी गीतकार ने कभी कहा था कि उर्दू शब्दों की सहायता के बिना फिल्मी गीत, विशेषकर प्रेमगीत लिखे ही नहीं जा सकते, तब मैंने गीत लिखा, “खिलते हैं अब भी फूल सुधे. . .”।
तभी स्मृतियों में एक तथ्य और झिलमिलाया कि कई फिल्मों में एक ही घटना पर दो-दो गीत भी लिखे गए। एक सुखकर व दूजा उसके विपरीत भावों को उकेरता हुआ। जैसा कि फिल्म नज़राना में लता जी का गाया “महका हुआ गुलशन है हँसता हुआ माली है. . .” और मुकेश जी के रेशमी स्वर में “इक वो भी दीवाली थी इक यह भी दीवाली है. . .”। तब मैंने दूजे गीत की रचना की “खिलते हैं फूल बसंत बहार जिनकी कृपा से. . .”।
नीचे दोनों गीत प्रस्तुत हैं। मेरा प्रयास आपको भला लगे तो आशीष देवें।
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★ #खिलते हैं फूल बसंत बहार ★
खिलते हैं फूल बसंत बहार
जिनकी कृपा से
उनके अधरों पर नाम मेरा
गौरीशिवा को रामसिया को
मंदिर के दिया को
शत-शत है परनाम मेरा
गौरीशिवा को रामसिया को . . . . .
छेड़े है मेरे बालों को
चूमे है मेरे गालों को
मैं लजवंती न जानूं
प्रीतपवन की चालों को
छूकर के आई है उन्हें
शीतल समीर जो
रही अंग-अंग पहचान मेरा
गौरीशिवा को रामसिया को . . . . .
बिन पैंजनिया छनन-छनन
मेरा न रहा अब मेरा मन
कल रात अकेली छोड़ गया
साथ मेरा मेरा बचपन
उगती सवेर में उड़ने के फेर में
छूटा ही जाए अब
गाम मेरा
गौरीशिवा को रामसिया को . . . . .
तारों बीच सुहाया चाँद
आया घर मेरे दीवारें फांद
क्या बोलूं मैं लाज लगे
क्या संदेसा लाया चाँद
नयन मुंदे मद से मेरे
उनके हिरदे हे प्रभु
अब से हुआ है धाम मेरा
गौरीशिवा को रामसिया को . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२
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★ #खिलते हैं अब भी फूल सुधे ★
खिलते हैं अब भी फूल सुधे
सुगंध कहीं धर आते हैं
सावन पतझर एकसाथ
अश्रु झर-झर जाते हैं
खिलते हैं अब भी फूल सुधे . . . . .
सपनों से सपनीली आँखें
सपनों से अब हीन हुईं
बिना तुम्हारे प्राणप्रिये
दीनों से भी दीन हुईं
छवि तुम्हारी लोच रही हैं
बिन जल जैसे मीन हुईं
नयन निशा के आस भरे
रह-रह भर-भर आते हैं
खिलते हैं अब भी फूल सुधे . . . . .
लोचक अंकित धूप खिली-सी
शरद ऋतु मुस्कान प्रिये
हमने देखा जी भर के
लोचन को अभिमान प्रिये
निरास की घिरती छाँव में
आस का अब औसान प्रिये
आस-निरास के झूले में
जाते ऊपर नीचे आते हैं
खिलते हैं अब भी फूल सुधे . . . . .
दृष्टिपथ में तुम ही रहे
तुमसे ही हो गई यूँ दूरी
मधुर मदिर आकल्पन में
यह कैसी विवशता धुंधूरी
मिलन विरह के गीत बहुत
नवसर्जन कविता नहीं पूरी
शब्द शब्दों के संग-साथ
छू लूं तो बहुत भरमाते हैं
खिलते हैं अब भी फूल सुधे . . . . .
बिरहा दावानल दृग दहकते
मोहिनी मूरत झलकाओ
मेरी न सुनो सुन लो भावी की
शिवा रमा ब्रह्माणी लौट आओ
समय बीतता स्वर-संधान का
आओ मेरे संग गाओ
बीते के फिर से दर्सन को
चितवनचीह्ने अकुलाते हैं
खिलते हैं अब भी फूल सुधे . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२