खाली हाथ
सिकंदर मरा जिस दिन, उस राजधानी में जिस दिन सिकंदर की अरथी निकली लोग हैरान हो गए, तुम भी वहां मौजूद होते, तो हैरान हो जाते। कुछ अजीब सी बात हो गई थी, सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी न हुआ था, हाथ तो अरथी के भीतर होते हैं। ये हाथ बाहर क्यों थे? किसी भूल चूक से हो गया था ऐसा? लेकिन सिकंदर की अरथी और भूल-चूक हो सकती थी? वह कोई गांव का भिखारी था? घंटों सजाई गई थी उसकी अरथी, देश के सभी सम्मानित जन, सभी सम्मानित नागरिक उसके आगे-पीछे चल रहे थे; क्या किसी को दिखाई न दे गया होगा यह तथ्य की दोनों हाथ बाहर लटके हुए हैं? हर आदमी पूछने लगा, ये हाथ बाहर क्यों हैं? धीरे-धीरे पता चलना शुरु हुआ, सिकंदर ने मरने के पहले कहा था मेरे हाथ अर्थी के बाहर लटके रहने देना, ताकि हर आदमी देख ले, मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। मैं जिंदगी में बहुत दौड़ा हूं; बहुत विजय की यात्रा की है, बहुत धन, बहुत शक्ति, बहुत पद, बहुत कुछ प्रतिष्ठा इकट्ठी कर ली है, जमीन पर शायद कोई मेरे जैसा पहले नहीं था, इतना बड़ा साम्राज्य, इतना बड़ा सम्राट हूं, लेकिन नहीं, हर आदमी देख ले, मैं भी भीतर खाली था और खाली हाथ जा रहा हूं। मेरी दौड़ निष्फल हो गई है।