खारा सावन
फिर समझौता…..मीनाक्षी के दिल मे हलचल मची हुई थी। शुरू से लेकर आज तक समझौते ही करती आ रही थी। ठीक है ज़िन्दगी समझौते का नाम है लेकिन सिर्फ उसके लिये ही क्यों….उसे ही जरूरत है सबकी । उसकी किसी को जरूरत नही है । आंखों से आँसू निकलने लगे थे उसके । सोचने लगी पहले मां बाप भाई बहन से फिर पति सासससुर नन्दों जिठानी सबसे अब बेटे बहुओं से …..क्या कोई उसके मन की सुनने वाला नहीं है। वो ही सबके सामने सर झुकाती रहे क्योंकि उस पर समझदार होने का ठप्पा लगा है। इस समझदारी को वो गुण माने या अवगुण . …अजीब सी कसमसाहट हो रही थी उसे ….वो भी एक नदी ही थी जिसे किनारों के बीच मे ही बहना था । किनारे तोड़ना मतलब अपना अस्तित्व को खत्म करना था । जब आंसू सूख गए और दिमाग भी थक गया सोचते सोचते तो वो खुद पर ही हँस पड़ी। कुछ हुआ है सोचने से । अंत तो यही होता है फिर पूरे मनोयोग से जुट जाती है वो गृहस्थी में अपने ही मन को दरकिनार करके । आंसुओं से भिगो देती है बस मन को …शायद सावन…. खारे सावन का अहसास करा देती है
डॉ अर्चना गुप्ता
08.-08-2018