खता खतों की नहीं थीं , लम्हों की थी ,
खता खतों की नहीं थीं , लम्हों की थी ,
वरना खत तो आज भी महकते है गुलाबों की तरह ।
वो लम्हें भी क्या जो गुजर गए कुछ कहे बिना ,
खत हमने आज भी सीने से लगा रखे हैं किताबों की तरह
मंजू सागर
गाजियाबाद
खता खतों की नहीं थीं , लम्हों की थी ,
वरना खत तो आज भी महकते है गुलाबों की तरह ।
वो लम्हें भी क्या जो गुजर गए कुछ कहे बिना ,
खत हमने आज भी सीने से लगा रखे हैं किताबों की तरह
मंजू सागर
गाजियाबाद