*खण्डहर-!
क्या देखते हो इस खण्डहर को
जो आज ये एक कहानी बनकर रह गया
जो अपना बीता हुआ कल फिर से ढूंढ रहा है।
ये विछिप्त प्राचीरें जिसमें बारीकता से हाथों द्वारा गढ़ी गई शिल्पकारी और राखी चूना से किसी राजगीर द्वारा किया गया निर्माण किसी जमाने में ये भी अपनी सुन्दरता की मोहकता का पर्याय बना होगा।
ये विछिप्त सन्नाटे से छाया हुआ आंँगन
और ये झिल्लिका की सीं सीं करती हुई आवाजें
किसी विभित्सिता से कम नहीं है।
कभी इसमें भी नूपरों की झनक
और किलकारों से ये गूंजता हुआ आँगन
कितना अच्छा लगता होगा।
और समय समय पर ढोलक की थापें
और मंजीरों की झन्कार और गीत संगीत
से ये गूंजता हुआ आँगन कितना अच्छा लगता होगा।
पर आज ये सन्नाटे से पसरा हुआ आंगन
ये अपना बीता हुआ कल को फिर से ढूंढ रहा है।
ये लम्बी लम्बी सफीलें और दालानें
आज भी मानो किसी बैठक का इन्तजार कर रही हैं
ये दालान के किनारे बने अस्तबल
किसी अस्व पे सवार होते हुए किसी रइसियत
या गुड़ सवार को फिर से देखना चाहता है
क्या देखते हो इस खण्डहर को
जो आज भी अपना बीता हुआ कल
फिर से ढूंढ रहा है।
(शरद कुमार पाठक)
डिस्टिक( हरदोई) उत्तर प्रदेश