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6 Mar 2023 · 34 min read

खंड 8

101- स्वर्णमुखी छंद

मृदु भावों का मेल जहाँ पर।
वहीं अयोध्या की नगरी है।
काशी मथुरा प्रिय सगरी है।
देवों का है लोक वहाँ पर।

जब-जब पाप हुआ भूतल पर।
तब-तब प्रभु अवतार लिये हैं।
असुरों का संहार किये हैं।
खुश होते प्रभु जग समतल कर।

माया का यह लोक पुराना।
झूठ-फरेब सभी करते हैं।
अहंकार ही इनका जीवन।

करते रहते सब मनमाना।
कूट-चाल चलते रहते हैं।
कपट-जाल इनके उर-आँगन।

102- स्वर्णमुखी छंद

पूँजीवादी भाव अपावन।
यह मन को कुत्सित करता है।
बनता है वह प्रिय मनभावन।
जिसका दिल व्यापक रहता है।

सम-योगी बनकर जो चलता।
आत्म तत्व से प्रेम जिसे है।
सहयोगी बन सदा थिरकता।
जीव मात्र से स्नेह उसे है।

जिसे जीव से प्यार नहीं है।
जो हिंसा को गले लगाता।
जग में वह स्वीकार नहीं है।
भले स्वयं को श्रेष्ठ बताता।

सत-शिव-सुंदर सुमन खिले जब।
सहज सुवासित चमन मिले तब।

103- स्वर्णमुखी छंद
(सरस्वती वंदना)

माँ सरस्वती का हो वन्दन।
ज्ञानामृतमय सरस सुहानी।
आजीवन करना अभिनंदन।
सदा सुनाती प्रेम कहानी।

बैठ हंस पर ज्ञान पिलाती।
दिव्य धरोहर भक्तिभावमय।
सद्विवेकिनी बुद्धि सिखाती।
शांत चित्तमय सहज दिव्यमय।

लिखती मधुर लिखाती पुस्तक।
स्वयं लेखनी लेख लिखावट।
विनय गगनमय चमकत मस्तक।
परम सौम्यमय नहीं बनावट।।

माँ सरस्वती का गुणगायक।
बन जाता है जग का नायक।।

104- स्वर्णमुखी छंद
(सरस्वती वंदना)

सुख-वैभव-संपदा प्रदाता।
दीन बन्धु भगिनी माता मम।
सदा स्वयंभू ज्ञान विधाता।
ममता समता सहज सुगम सम।

कृपाचारिणी धर्मपरायण।
बुद्धिदायिनी योगक्षेममय।
लिखती माँश्री शिवरामायण।
ज्ञान शीर्ष पर अति उन्नतमय।

सहज वेद वेदामृत धारा।
मानवता की रचना करती।
माँ पर आश्रित है जग सारा।
माँ पर ही यह जगती पलती।

माँ का आशीर्वाद चाहिए।
जन्म धन्य आवाद चाहिए।

105 स्वर्णमुखी छंद

नहीं प्यार से डर लगता है।
यह मन को मतवाला करता।
सब से प्यार किया करता है।
हाथ मिलाकर चलता रहता।

सकल निसर्ग बहुत मनमोहक।
अतिशय प्रिय प्यारा प्रभु देशा।
यह सारा ब्रह्माण्ड सुबोधक।
देती प्रकृति प्रेम संदेशा।

प्यारा शब्द बहुत मनभावन।
मधुर अर्थ में स्वर्गिक सुख है।
प्यारे बोल बुलाते सावन।
कटु वाणी में दुख ही दुख है।

प्यारे भावों की कश्ती में।
मानव बहता मधु मस्ती में।

106- स्वर्णमुखी छंद

भौतिक हाला की आतुरता।
में बैठा गन्दा प्याला है।
अधोगतिज सड़ियल नाला है।
ह्रदयशून्य दूषित लौकिकता।

अति भौतिकता बहु दुखदायी।
इसका पीछा कभी न करना।
इसे देखकर सदा विदकना।
परहितवाद नित्य सुखदायी।

लौकिक मानव कभी न बनना।
स्वार्थभाव को सदा त्याग चल।
आत्मवाद को अपनाना है।

धर्म पंथ पर चलते रहना।
गलत कार्य से सहज भाग चल।
जग में आत्मा को पाना है।

107- स्वर्णमुखी छंद

कोई नहीं पराया जग में, दो सब को सम्मान।
भेदभाव को दफ़नाओ अब, चलो नेति के पास।
सब को एक समझनेवाले, के अंतस में ज्ञान।
देख रही है सारी दुनिया, तुझसे ही है आस।

सब के प्रति अनुराग भाव रख, बन जा सब का मीत।
स्नेहिल भावों की गंगा में, खिलता दिव्य सरोज।
जग में ब्रह्मलोक को देखो, लिख मनमोहक गीत।
प्रेमिल दिल के पास विराजत, उन्नत दिव्य उरोज।

मानव हो कर ऊपर उठना, सुनो देव के बोल।
देना सीखा जिसने सबको, जग में वही महान।
अंतस में देवत्व जगा कर, बन जाओ अनमोल।
कर पर कर को रखनेवाला, अति मोहक धनवान।

वंदनीय वह मानुष जग में, जिसका हृदय विशाल।
नमन किया करता चलता है, मतवाली है चाल।

108- स्वर्णमुखी छंद
आधार छंद जॉन मिल्टन का सॉनेट

चंचल मन को ठौर कहाँ है?
सदा भागता इधर-उधर है।
कभी कहीं पर कभी किधर है?
सतत खोजता कौर कहाँ है?

काम-वासना का दीवाना।
भौतिकता का है यह भूखा।
अच्छा नहीं है रूखा-सूखा।
देहवाद ही नित अरमाना।

धन-दौलत को मित्र समझता।
अति स्वच्छंद भाव में जीता।
अहंकार को गले लगाता।

राजकुमारों जैसा बनता।
दंभ-कपट की मदिरा पीता।
अपने को सर्वोच्च बताता।

109 स्वर्णमुखी छंद
(जॉन मिल्टन के सॉनेट पर आधारित)

भारत देश दिव्य अति पावन।
इसकी संस्कृति अमर सनातन।
यही अनादि सभ्य नित नूतन।
भारत प्यारा वैश्विज भावन।

भारत को जो नहीं मानता।
वह ईर्ष्या में सदा जल रहा।
नीरसता में महज पल रहा।
भारत को जो नहीं चाहता।

भारत देश सहज मस्ताना।
मानवता का यह दीवाना।
दानवता से करता नफरत।

सबका करता है सम्माना।
जगत गुरू बन देता ज्ञाना।
सारे जग में इसकी शोहरत।

110 स्वर्णमुखी छंद
आधार छंद-शेक्सपियर का सॉनेट

श्रद्धा अरु विश्वास को, समझो उमा महेश।
श्रद्धा अरु विश्वास से, बनता मनुज महान।
श्रद्धा अरु विश्वास की, संस्कृति दिव्य गणेश।
श्रद्धा अरु विश्वास का, हो मानव को ज्ञान।

श्रद्धा में ही ज्ञान अति, श्रद्धा ही नवनीत।
यह आत्मिक अनमोल धन, इसकी कर पहचान।
श्रद्धेया माँ शारदा, पर लिख मोहक गीत।
श्रद्धा से माँ शक्ति का,करो नित्य गुण गान।

श्रद्धाअरु विश्वास धर, चूमो सारा लोक।
श्रद्धा अरु विश्वास ही, सकल सृष्टि का सार।
जिसके उर में तत्व द्वय, बनता वही अशोक।
श्रद्धा अरु विश्वास से, मिलता गुरुतर प्यार।

श्रद्धा अरु विश्वास ही, जीवन के हैं मूल।
इन मधु भावों में छिपे, हुए सुगंधित फूल।

111- स्वर्णमुखी छंद
आधार-जॉन मिल्टन का सॉनेट

जीवन को उत्साह समझ कर।
कर्म अनवरत करते जाना।
जीवन में मीठा फल पाना।
अपना जीवन सहज सफल कर।

भाग्योदय होता उसका है।
जिसमें अति उत्साह भरा है।
मन-वट जिसका सदा हरा है।
यह संसार सहज उसका है।

उत्साहित सबको रहना है।
नियत लक्ष्य तक नित चलना है।
कर्मयोग सब को करना है।

आशान्वित हो कर बढ़ना है।
मन को निश्चित दृढ़ रखना है।
सुंदर कृति को नित रचना है।

112- स्वर्णमुखी छंद
आधार-शेक्सपियर का सॉनेट

जो अपमान किया करता है।
अहंकार के रथ पर चलता।
वह गाली सुनता रहता है।
मूल्यों के संकट में पलता।

नारकीय जीवन जीता है।
वह समाज का घृणित अपावन।
दूषित हाला नित पीता है।
नीच अभागा पतित नशावन।

अपने मन को श्रेष्ठ समझता।
गर्वीला वह सदा डरावन।
अपनी बातें ऊपर रखता।
कभी नहीं लगता मनभावन।

दंभ-कपट मन-माद भगाओ।
मन को पावन स्वच्छ बनाओ।

113- स्वर्णमुखी छंद
आधार-शेक्सपियर का सॉनेट

दया और करुणा जहाँ, वह प्रियतम का गेह।
प्रियतम का पावन हृदय, उन्नत मधुर विशाल।
सेवा करता वह मनुज, प्राणि मात्र से स्नेह।
जो पालित-पोषित सहज, अपने ही ननिहाल।

दया और करुणा सरित, बहे सतत चहुँओर।
विघटित जनमानस बने, सुगठित सुष्ठ महान।
देवभूमि भारत चले, वैश्विकता की ओर।
स्वस्थ सुसंस्कृत आचरण, का हो सकल जहान।

प्रेमपूर्ण वातावरण, परम शांति सन्देश।
विश्व एकता मिलन की,हो हर मन में चाह।
सत्य अहिंसक कर्म से, बने विश्व इक देश।
मानवता के ज्ञान से, मिले सभी को राह।

मानव के कल्याण के, लिये बने शिव पन्थ।
परहित मोहक लेखनी, सदा रचे प्रिय ग्रन्थ।

114…स्वर्णमुखी छंद
आधार-जॉन मिल्टन का सॉनेट

मन का मिला न मीत कभी भी।
जो भी मिला दिखा अति चालू।
लुका-छिपी करता दिल कालू।
मिला न सच्चा मीत कभी भी।

आया निकट लगा अति प्यारा।
फिर पीछे-पीछे दौड़ाया।
मन अरु दिल को बहु ललचाया।
और बिगाड़ा खेला सारा।

जग में पावन मीत कहाँ हैं?
नहीं दिलेरी अब दिखती है।
सब मतलब से मिलने आते।

मधुर मिलन संगीत कहाँ है?
प्रीति रीति झूठी लगती है।
मिथ्या प्यार दिखा चल जाते।

115- स्वर्णमुखी छंद
आधार-शेक्सपियर का सॉनेट

सब को माया सदा सताती।
बहुत लुभावनि माया मनहर।
मोह जाल में सहज फँसाती।
लगती सच में अति प्रिय सुंदर।

माया “मा -या” झूठ तंत्र है।
माता जैसी अति मोहक नित।
मन-काया का मूल मंत्र है।
बहु आयामी नाटकीय हित।

माया ब्रह्मा की तनुजा है।
नाच नचाती सारे जग को।
यह लगती सचमुच मनुजा है।
बाँध रखी है सब के पग को।

मायावी यह सकल सृष्टि है।
जड़ प्रधान अज्ञान दृष्टि है।

116- स्वर्णमुखी छंद
आधार छंद-जॉन मिल्टन का सॉनेट

घायल करता हृदय को, पत्थर दिल इंसान।
लेता है आनंद वह, पत्थर से कर वार।
हृदयशून्य इंसान का,यह है असली प्यार।
नहीं हृदय के भाव का, उसको है कुछ ज्ञान।

समझाने से मानता, कभी नहीं वह बात।
अपनी जिद पर ही खड़ा, टिका हुआ इंसान।
सदा उगलता जहर है, अति मूरख शैतान।
बाहर-भीतर एक सा, करता है आघात।

सब को गलत समझ सदा,करता अत्याचार।
मिथ्यावादी सोच को,कहता शिष्टाचार।
सदा प्रदर्शन के लिए, रहता है तैयार।

दुश्चिंतन में मन सतत, दूषित गलत विचार।
करता रहता अनवरत, अपना सिर्फ प्रचार।
सदा प्यार के नाम पर, करता नित व्यापार।

117- स्वर्णमुखी छंद (चतुर्दश पदी )
आधार-शेक्सपियर का सॉनेट

भारतीय संस्कृति का पालक।
आत्म भाव में नित्य विचरता।
इस जगती का मोहक चालक।
बनकर सदा गमकता रहता।

शाकाहारी शुद्ध सुनन्दन।
परम अहिंसक शिष्टाचारी।
करता सबका नित अभिनन्दन।
महा तपस्वी सत्य विचारी।

भारतवर्ष पुनीत सनातन।
वंदनीय हिन्दू जनमानस।
बोधगम्य हिंदी अधुनातन।
दिल का राजा हिन्दूमानस।

भारत सब को एक समझता।
शुचि गंगा बन जग में बहता।

118- अटल बिहारी वाजपेयी

भारतीय संस्कृति संवाहक।
अति प्रिय मोहक नीति नियामक।।
अतिशय भावुक मधुर लुभावन।
समदर्शी समदृष्टि सुहावन।।

कर्मनिष्ठ ज्ञानी शालीना।
प्रिय वक्ता अति चतुर प्रवीना।।
धर्मपरायण बहु प्रिय नेता।
अति प्रिय मोहक भाव प्रणेता।।

सुंदर शुद्ध विचार मनोहर।
दंभरहित अति शिष्ट धरोहर।।
कुशल कुशाग्र बुद्धि के नायक।
भारतीय सांस्कृतिक सुगायक।।

“मेरी इक्यावन कवितायें”।
अटल काव्य की दिव्य ऋचाएँ।।
सतसठ कुंडलियों का संग्रह।
अटल बिहारी का यह विग्रह।।

कवि-नेता सामाजिककर्त्ता।
राष्ट्रवाद के कर्त्ता-धर्त्ता।
व्यक्ति निराला अटल बिहारी।
कृति सर्वोत्तम अतिशय प्यारी।।

प्रयियोगी शिवयोग सुचेता।
जनमानस के हृदय विजेता।।
स्नेहवाद के घोर प्रचारक।
परहितवादी सौम्य विचारक।।

अटल बिहारी का कर वन्दन।
सारी जगती में अभिनन्दन।।
अटल पुरुष के पद चिह्नों पर।
चल कर रच आदर्श मनोहर।।

119- स्वर्णमुखी छंद लेखन अभियान

स्वर्णमुखी छंदों का लेखन।
करते चल अभियान समझ कर।
आँखें सब की चाहें देखन।
खुश हों पाठक भाव पकड़ कर।

स्वर्णमुखी है छंद निराला।
लिख-पढ़ कर मन खुश हो जाता।
शेक्सपियर का है यह प्याला।
लेखक-पाठक मस्ता जाता।

मिल्टन स्वर्णमुखी अनुरागी।
“सॉनेट” लिख प्रख्यात हुए हैं।
मिल्टन जॉन दिव्य बड़ भागी।
विश्व ख्याति को प्राप्त हुए हैं।

स्वर्णमुखी लिखना-पढ़ना है।
चौदह पद नियमित रचना है।

120- स्वर्णमुखी छंद
(शेक्सपियर के सॉनेट पर आधारित)

काम करो या मत करो, पर मत कर बकवास।
शांत रहो कटुवचन मत, कभी कहो सुन यार।
सदा मौन में इत्र है, करता सहज सुवास।
आक्रामकता में बसा,दुखदायी व्यवहार।

काम करो तो प्रेम से, अथवा छोड़ो काम।
पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो, करो नहीं व्यवहार।
प्रेमपूर्ण हर कर्म से, पाता मन आराम।
खुश हो कर होता रहे, सारे शिष्टाचार।

मन को शुद्ध रखो सदा, निर्मल मन में राम।
पावन उज्ज्वल शुभ्र मन, का बन रचनाकार।
शुद्ध भाव सौंदर्य से, बनते सारे काम।
सुंदर सच्चे मूल्य पर, स्थापित हो संसार।

झगड़ालू आचार का, करते रहना त्याग।
मत विवाद में पड़ कभी,यह है काला नाग।

121- स्वर्णमुखी छंद

जीवन का प्रारंभ सुखद हो।
सदा कामना शुभ शिवमय हो।
कभी न मन में भाव दुखद हो।
सद्भावों में मन तन्मय हो।

यदि प्रारंभ दिव्य सर्वोत्तम।
कार्य पूर्ण तब मोहक होगा।
साथ रहेंगे शिव पुरुषोत्तम।
जीवन अति प्रिय रोचक होगा।

सुप्रभात कह शुभ प्रभात कह।
दिनचर्या मंगलमय होगी।
सुंदर वर्तमान में नित रह।
सदा जिंदगी मधुमय होगी।

जीवन को अति सफल बनाओ।
मन में निश्चित कमल खिलाओ।

122- स्वर्णमुखी छंद लेखन अभियान

काशी की है छटा निराली।
अति मनमोहक पावन धरती।
यहाँ सभ्यता की हरियाली।
काशी नित पापों को हरती।

काशी शब्द नाम बहुचर्चित।
जग इसकी गुरुता का कायल।
विश्व पटल इस पर आकर्षित।
उपचारित होता हर घायल।

शिव जी काशी के दीवाना।
उमा सहित विचरण करते हैं।
नंदी बैल संग मस्ताना।
शिव जी सब के दुख हरते हैं।

जो काशी का सेवन करता।
मोक्ष-फलामृत रस वह चखता।

123- स्वर्णमुखी छंद लेखन अभियान

इस धरती पर नौजवान ही।
अमर बेलि को बो सकता है।
सबके छाले धो सकता है।
इस धरती पर नौजवान ही।

ऊर्जा का वह स्रोत पुरातन।
मन का चाहा गढ़ सकता है।
दुश्मन से वह लड़ सकता है।
कर्मवीर वह नित अधुनातन।

कर्मयोग की शिक्षा देता।
वह विकास का पंथ प्रदर्शक।
कर्म-ज्ञान का सत्य प्रवर्तक।
प्रिय कर्मों से मन हर लेता।
कर्मभूमि को पावन करता।
शक्तिमान बन चलता रहता।

124- स्वर्णमुखी छंद लेखन अभियान

सदा सुवासित मनआँगन हो।
बहे हृदय में निर्मल सरिता।
रम्य सुरम्य बने नित कविता।
अन्तस पावन मनभावन हो।

सुंदर भावों का हो स्वागत।
सदा तिरष्कृत रहे अपावन।
अभिजात्यों का हो प्रिय आवन।
जीना सारा जीवन जागत।

रहना सीखो शिक्षक बनकर।
कर्मों में उपदेश भरा हो।
अति मनमोहक मनुज-धरा हो।
रखो ख्याल सह-रक्षक बनकर।
खुद को रच इतिहास बनाओ।
मन के तम को सदा मिटाओ।

125- अभिमुखी छंद

जीवन को संतुलित बनाओ।
आजीवन हर्षित हो जाओ।
पुष्पित हो कर गमक गगन तक।
मधु सुगंध का रस बरसाओ।

दुविधाओं से दूर खड़ा रह।
निश्चिन्तित हो नित्य चलो बह।
कभी भ्रमित मत होना मित्रों!
शांतचित्त हो सब कुछ सह-गह।

दिनचर्या को नियमित करना।
सरस भाव बन चलते रहना।
नहीं कुटिलता को आने दो।
सज्जनता से परिचय रखना।

जीवन हो अति सरल व्यवस्था।
स्पष्ट दिशा प्रिय दशा-अवस्था।

126- स्वर्णमुखी छंद

नशा करो तो प्रेम का, रच स्नेहिल संसार।
मधु भावों के मृदुल स्वर, गूँजें चारोंओर।
पथिक बने विचरण करो, पकड़ प्रीति की डोर।
मनमोहक सुविचार का, लगे सहज अंबार।

छिपे प्यार में ईश हैं, भज उनको हर वक्त।
रहना सीखो हृदय से, हर प्राणी के संग।
करुणा अरु सद्भाव से, जीतो सारी जंग।
आत्मसात कर प्यार को, रहो नित्य आसक्त।

नहीं प्रेम से कुछ बड़ा, मधुरिम बने स्वभाव।
दर्शनीय संसार यह, ईश्वर का है धाम।
सहज मगन हो प्रेम का, लेना हरदम नाम।
सबसे मिलो सप्रेम बस, छोड़ो अमिट प्रभाव।
नशा प्रेम का अति भला,रहे इसी का जोश।
चेतन मन में लीन हो,रहो अथक मदहोश।

127- स्वर्णमुखी छंद

मन में हो सहयोग भावना।
उत्तम चिंतन सदा अटल हो।
सुंदर इच्छा सहज प्रबल हो।
दिल में हो सम-योग कामना।

सब के प्रति सम्मान भाव हो।
बन जाये मन निर्मल सरिता।
व्यापक चिंतन की हो कविता।
हितकर पथ का नित्य चाव हो।

मन-जीवन को पर्व समझना।
खुशियों का नित दीप जलाओ।
मन में देव लोक ले आओ।
मानवता को सब कुछ कहना।
दानवता पर सदा विदकना।
मन मलीनता नितमित तजना।

128- स्वर्णमुखी छंद

शुक्रवार का दिवस सुहाना।
प्रेम कृपा यह बरसाता है।
स्नेह सिंधु में नहलाता है।
शुक्रवार दिन बहुत लुभाना।

प्रेमवृति-वट को जमने दो।
प्रेमातुर हो सतत चहकना।
प्रेम-परिंदा बनकर उड़ना।
प्रेमदूत सब को बनने दो।

शुक्रवार है प्रेम दीवाना ।
प्रेम दीप कर में ले चलता।
दीप शिखा को देख मचलता।
प्रेमव्रती यह बहु-मस्ताना।
प्रेमी पावन शुक्रवार है।
महा दिव्य यह सदाचार है।

129- स्वर्णमुखी छंद

वही वर्ष नव वर्ष हमारा।
जिसमें मोहक भाव निराला।
मानव बन पीयें मधु हाला।
सब का मन हो निर्मल प्यारा।

वही वर्ष नव वर्ष सुखद है।
जहाँ प्रेम के हैं रखवाला।
प्रेमातुर सुंदर मतवाला।
मधुर वर्ष नव वर्ष फलद है।

जहाँ सभी में प्रीति रीति हो।
अति सम्मोहक भाव प्रणय हो।
दिल का दिल में सहज विलय हो।
जहाँ सुगन्धित गीति-नीति हो।
वही हमारा वर्ष नया है।
सदा बरसती करुण-दया है।

130- स्वर्णमुखी छंद

ऐसा अभिनव वर्ष चाहिए।
जिसमें हो मन की निर्मलता।
भाव प्रधान रुचिर नित शुचिता।
अति प्रिय नूतन वर्ष चाहिए।

जहाँ त्रिवेणी की धारा हो।
पावन संगम का जमघट हो।
भक्ति-ज्ञान-प्रेम सरपट हो।
सुंदर सरल भाव प्यारा हो।

नित नव नवल वर्ष हो सुखमय।
सुंदर वर्ष रहे मनभावन।
आकर्षक हो वर्ष सुहावन।
नूतन वर्ष रहे प्रिय शिवमय।
मानवता का वर्ष चाहिए।
सामाजिक उत्कर्ष चाहिए।

131- स्वर्णमुखी छंद

प्रिय समाज का मेला होगा।
दिल से दिल की बात सदा हो।
प्रीति परस्पर नित्य वदा हो।
मधु भावों का खेला होगा।

नूतन वर्ष तभी आयेगा।
जब जीवन में मंगल होगा।
नैतिक आभा मण्डल होगा।
मधु बसंत जब छा जायेगा

नूतन वर्ष सुखद प्रत्याशा।
परम काल्पनिक मधुमय सुंदर।
बीता कल जिमि अनिल भयंकर।
दिव्य काल की है अभिलाषा।
आनेवाला मोहक होगा।
मत समझो सम्मोहक होगा।

132- स्वर्णमुखी छंद

जहाँ प्रेम नव वर्ष वहीं है।
वहीं स्वर्ग की मधुर सीढ़ियां।
तरती रहतीं सभी पीढियां।
अति प्यारा नव वर्ष वहीं है।

सुंदर भावपूर्ण प्रिय चिंतन।
सानुकूल मोहक निसर्ग प्रिय।
प्रीति रसिक हो सत्य सुघर हिय।
पावन मूल्य हेतु हरिकीर्तन।

आत्मभाव का आलिंगन हो।
शिवमय काल चला आयेगा।
सदा सुकाल बुला लायेगा।
विश्व-आत्म का चिर सिंचन हो।
नये वर्ष की यही कामना।
इन्हीं क्षणों की करो याचना।

133- स्वर्णमुखी छंद

काम करो बस चलते रहना।
जग में इसीलिए आये हो।
इसीलिए यह तन पाये हो।
मेहनत करना आगे बढ़ना।

सत्य पंथ पर डटकर चलना।
हिम्मत कभी नहीं तुम हारो।
श्रम की आरति नित्य उतारो।
सत्यनिष्ठता कायम रखना।

अपने को संबोधित करना।
कर्मभाव हो अंतर्मन में।
पावन चिंतन भर जन-जन में।
अपने को संशोधित करना।
हो अपना संसार अनोखा।
कभी किसी को मत दो धोखा।

134- स्वर्णमुखी छंद

धोखा देना पाप कर्म है।
जगती में विश्वास जमाओ।
खुद में उत्तम भाव जगाओ।
धोखेवाजी गरल मर्म है।

पाप वृत्ति को जल जाने दो।
शुभदायी बनकर जीना है।
सुखदायी हाला पीना है।
विपदाओं को टल जाने दो।

पावन निर्मल शुभ्र स्वच्छ बन।
पाक-साफ बनकर जो रहता।
गंदे मन को शोधित करता।
वह पाता उज्ज्वल मोहक मन।
करना है उद्धार स्वयं का।
लंका दहन सदैव अहं का।

135- स्वर्णमुखी छंद

रमता योगी बहता पानी।
निर्मल बनकर चलना प्यारे।
निर्गुण बन मिल जग से सारे।
यही काम करता सद्ज्ञानी।

एक जगह पर कभी न रह प्रिय।
सतत टहलते चलते रहना।
मृदु भावों से मिलते चलना।
तोड़ न देना मानव का हिय।

भ्रमण करो सत्संगी बनकर।
नैसर्गिक जीवन को जीना।
सदा प्रकृति में रह लवलीना।
रमण करो बजरंगी बनकर।
कभी न रुकना एक जगह पर।
स्वच्छ बनो अति मानव सुंदर।

136- स्वर्णमुखी छंद

मौसम बहुत सुहाना प्यारा।
सर्दी का आनंद लीजिए।
मादक मदिरा नित्य पीजिए।
घना कुहासा लगता न्यारा।

देख तमाशा खुश हो जाओ।
ढकी हुई धरती बर्फीली।
श्वेत रंग में अति चमकीली।
इस निसर्ग से नेह लगाओ।

थोड़े दिन का यह खेला है।
देख इसे नियमित हरषाओ।
नित मस्ती के गाना गाओ।
दिव्य प्राकृतिक यह मेला है।
पहन-ओढ़ कर घूम निरन्तर।
बैठ ठंड की गोद स्वतंतर ।

137- स्वर्णमुखी छंद

करो आत्म का ज्ञान, अपने बारे में चिंतन कर।
हो विश्लेषण नित्य, अपनी कमी ढूढ़ते रहना।
दोष दृष्टि से मुक्त, होने का अभ्यासी बनना।
खुद पर होय विचार, गलत काम से सदा लगे डर।

पावनता की नींव, रहे नित्य मजबूत हमेशा।
मन का हो उपचार,इसको ही निर्मल करना है।
हो संयम से काम, उत्तम प्याला बन रहना है।
रहो सदा चैतन्य, उगो बढ़ो जिमि रश्मि दिनेशा।

नियमित हो हर काम, नियमविरुद्ध कभी मत चलना।
ग्रहण करो उपदेश, आदर्शों को आत्मसात कर।
सच्चाई से प्यार, करते रहना चलना डटकर।
सदा गुणी के साथ, चलते रहना सदा मचलना।
हो अपना उद्धार, मुक्तिबोध की राह बनाओ।
आत्मा के विस्तार,से अपना जग नित्य सजाओ।

138- स्वर्णमुखी छंद

साधारण जीवन जीने की।
शिक्षा लेना अति श्रेयस्कर।
दीनों का प्रिय रक्षक बन कर।
आदत डालो नित पीने की।

उच्च विचारों की संस्कृति से।
प्यारा भारत वर्ष भरा है।
आदि काल से खड़ा हरा है।
सहज अहिंसा की सत्कृति से।

साकी बनकर दान कर रहा।
ज्ञानवान यह मानवता का।
घोर विरोधी दानवता का।
भारत वर्ष महान धरा यह।
आत्मभाव का दिव्य प्रचारक।
भारत वर्ष समाज सुधारक।

139- स्वर्णमुखी छंद

भारत वर्ष अजेय हमारा।
यह वीरों की पावन धरती।
मानवता का वन्दन करती।
दिव्य अलौकिक भारत सारा।

भारत राम-कृष्ण की संस्कृति।
लोकातीत मूल्य भारत है।
विश्व प्रेम दृष्टि स्वारथ है।
इसका एक लक्ष्य है सत्कृति।

यह अक्षुण्ण है प्रिय अविनाशी।
शांति पाठ का यह विद्यालय।
परहितवादी यही शिवालय।
यहाँ अयोध्या-मथुरा-काशी।
ब्रह्मलोक यह परम पुनीता।
भारत श्रीमद्भगवद्गीता।

140- स्वर्णमुखी छंद

तप तप तप कर निखर चमक चल।
विश्व गगन पर चढ़ना संभव।
तप से कुछ भी नहीं असंभव।
करता दैवी कृत्य तपोबल।

घिस घिस घिस कर तेज बढ़ाओ।
उन्नत करना सदा मनोबल।
प्रगतिशील हो नित्य बुद्धिबल।
सतत शिखर पर चढ़ते जाओ।

मंत्रमुग्ध हो सारी धरती।
सीखो मंत्र सदा मनभावन।
बनो तंत्र अति दिव्य लुभावन।
उत्तम मनोवृत्ति दुख हरती।
तप से मिलता शिष्ट आचरण।
तप जीवन का सत्य व्याकरण।

141- नयी प्रीति
स्वर्णमुखी छंद

नयी प्रीति की बड़ी महत्ता।
हृदयस्पर्शिनी मोहित करती।
मन को सदा सुशोभित करती।
बहुत सशक्त इसी की सत्ता।

बड़े भाग्य से यह मिलती है।
नहीं अभागा इसको पाता।
कोशिश करने पर पिट जाता।
प्रीति महान संग रहती है।

प्रीति उसी से हाथ मिलाती।
जिसमें मोहक ज्ञान भरा है।
जो सबके दिल में उतरा है।
प्रीति उसी के ह्रदय समाती।
प्रीति मिली तो जीवन स्वर्गिक।
यह प्रिय मदन मधुर नैसर्गिक।

142- अभिनव प्रीति
(स्वर्णमुखी छंद)

नित नव नवल प्रीति जब जागी।
प्रिय के मुख्यद्वार पर आयी।
अपने दिल की बात बतायी।
अति प्रसन्न तब प्रिय बड़भागी।

प्रीति खुशी से झूम रही है।
अपने चिर वांछित को पा कर।
प्रिय के हिय में स्नेह जगा कर।
प्रीति परसपर चूम रही है।

प्रीति सदा रहती प्रिय के घर।
पुष्प विछा कर सेज सजाती।
प्रिय के मन को सहज लुभाती।
बनी रसमयी सुमुखि अति सुघर।
मुस्कानों से भरी पड़ी है।
प्रीति पिलाने हेतु अड़ी है।

143- प्रीति जानती
(स्वर्णमुखी छंद)

प्रीति जानती पान कराना।
बात-बात में रस बरसाती।
अपना परिचय स्वयं बताती।
प्रीति जानती ध्यान दिलाना।

प्रीति जागती कभी न सोती।
बनी कृष्ण की प्यारी मीरा।
सदा चमकता मन जिमि हीरा।
प्रिय बिन प्रीति हमेशा रोती।

सबकुछ कहती सोच समझकर।
बहुत दिनों की भूखी-प्यासी।
चेहरे पर थी बहुत उदासी।
हँसी प्रीति अपने से मिलकर।
प्रीति मिलेगी सदा धीर धर।
सद्भावों में लीन रहा कर।

144- प्रीति निभाना
(स्वर्णमुखी छंद)

साथ निभाना प्रीति जानती।
अंतस में वह बैठी रहती।
दिल की सारी बातें कहती।
प्रीति प्रीति को बहुत मानती।

बहुत लुभावन प्रीति सयानी।
अति मनमौजी हँसमुख सुमुखी।
अतिशय भावुक सहज अति सुखी।
मनहर तेजयुक्त प्रिय ज्ञानी।

कलाकार चंचल अति विनयी।
परंपरावादिनि संयम प्रिय।
स्पष्टवाद बहता रहता हिय।
निर्छल व्यापक अजेय विजयी।
प्रीति रत्न अनमोल खजाना।
सारा जग इस पर दीवाना।

प्रीति रसिक है
(स्वर्णमुखी छंद)

दिव्य सरस मधुरस शिव पूजित।
मधुर काव्यमय ललित पुनीता।
भाव प्रधान राधिका-सीता।
पावन निर्मल प्रीति अदूषित।

प्रेम रसिक रसयुक्त प्रियंगी।
रसाकार ओंकार स्वरूपा।
अद्वितीय अद्वैत अनूपा।
स्नेहिल मृदुल सुडौल शुभांगी।

रस बरसाती रस अनुरागी।
रस में सदा लगा मन रहता।
रस प्रिय हृदय नाचता चलता।
प्रीति मदन मनसिज बड़भागी।
प्रीति रसिक है अमर रसायन।
मोहक सृष्टि प्रीतिमय आयन।

145- नहीं प्रीति से मन भरता है
(अभिमुखी छंद)

नहीं प्रीति से मन भरता है।
यह मन सदा लगा रहता है।
भाग्यप्रदात्री प्रीति सुहागिन।
भाग्यमान इसमें रमता है।

जहाँ प्रीति है वहीं राम हैं।
शेबरी के श्री राम धाम हैं।
समझ प्रीति को देवी रूपा।
प्रीति भाव में दिव्य श्याम हैं।

प्रीति परम प्रिय खोजत सुंदर।
प्रीति शक्तिसम्पन्न धुरंधर।
प्रीति हृदय में कृष्ण साँवरे।
प्रीति निवास अथाह समंदर।
प्रीति चाहती ज्ञान रसामृत।
इसे रिझाता सहज सुसंस्कृत।

146- स्वर्णमुखी छंद

बात किये बिन जी नहीं, कभी मानता यार।
सता रही हो याद जब, बैठे कब चुपचाप?
बिना मिले मन तड़पता, सहता रहता ताप।
यथाशीघ्र चाहत यही, होय जल्द दीदार।

मीत मिलन संयोग अब, हो जाये साकार।
प्रियवर ही यह जिंदगी, प्रिय जीवन का अर्थ।
मधुर भाव मोहक मिलन, बिन यह जीवन व्यर्थ।
मित्र निकटता का सदा, करना है सत्कार।

यही निवेदन मीत से, सुने सदा फरियाद ।
भावुकता की कल्पना, ले आकार विशाल।
मित्र भावना की बढ़े,अनुदिन मादक चाल।
मिलने को व्यकुल रहे, जब भी आये याद।
उभय पक्ष आतुर रहे, मिलने को हर रोज।
सदा समुन्नत भाव का, खिलता रहे सरोज।

147- स्वर्णमुखी छंद

सुख की चाहत दुख का कारण।
स्वर्णमृगा मिथ्या होता है।
सीता का फंदा बनता है।
माया छोड़ पढ़ो रामायण।

सुख-दुख की परवाह करो मत।
इस भ्रम से ऊपर उठकर चल।
करो राम का ही केवल बल।
माया को पहचान डरो मत।

सुख की इच्छा कभी न पालो।
सुख है भोग सदा दुखदायी।
इसे समझना मत सुखदायी।
सुख की आदत कभी न डालो।
सुख ही दुख का मूलमंत्र है।
आत्मघात का लोकतंत्र है।

148- हिंदी में अमरत्व छिया है
(स्वर्णमुखी छंद)

हिंदी प्यारी लोचदार है।
अति कमनीय विनम्र सुरीली।
सतरंगी सुंदर रंगीली।।
यह भाषा प्रिय जोरदार है।

छंदों से यह भरी पड़ी है।
अभिनव छंदों का यह शोधन।
करती रहती नित संशोधन।
विश्व हृदय पर टिकी खड़ी है।

हितकर रुचिकर मधुर प्रवीणा।
निर्देशक यह जगत गुरू है।
हिंदी से ही मनुज शुरू है।
ज्ञान भारती की यह वीणा।
हिंदी लगती जिसको प्यारी।
उस मानव की दुनिया न्यारी।

149- स्वर्णमुखी छंद

पंछी के मनहर कलरव को।
सुनकर करता नृत्य स्वयं में।
झूमा करता नित्य स्वयं में।
वही पकड़ता रहता रव को।

धरती से उड़ चलत गगन को।
आनंदित हो सदा घूमता।
मस्ती को वह सहज चूमता।
पढ़ पंछी के अंतर्मन को।

मानव उसको क्या जानेगा?
मानव माया के फंदा में।
पड़ा हुआ नाला गंदा में।
पंछी को वह क्यों मानेगा।
पंछी से मानव छोटा है।
कलुषितभावयुक्त खोटा है।

150- स्वर्णमुखी छंद

तुम मिलकर मन खुश कर देते।
तुझको पाना बहुत जरूरी।
सारी मनोकामना पूरी।
तुम्हीं परम प्रिय मधुर चहेते।

तुम्हीं सुघर आनंद प्रदाता।
सुखमय जीवन के अरुणोदय।
सुभग प्रेम के नव भाग्योदय।
सरस रसीला रसिक विधाता।

तुम्हीं मिलो बस यही चाहिए।
जीवन में आनंद विखेरो।
स्नेहाक्षर को सतत उकेरो।
हृदय सलामत सही चाहिए।
जीवन का बन दिव्य सहारा।
तेरा मीत बहुत बेचारा।

151- स्वर्णमुखी छंद
(हिंदी की महत्ता)

हिंदी को जो सीखता, बनता वही सुजान।
हिंदी मोहक शब्द से, करते रहना प्रीति।
हिंदी को ही जानकर, लिख मधुरामृत गीति।
हिंदी के अभ्यास में, छिपा हुआ विद्वान।

हिंदी के मधुवाक्य में, है देवों का वास।
हिंदी विनय-विनम्र अति, हिंदी शील अनंत।
रामचरित मानस लिखे, तुलसी जैसे संत
करना है सत्संग तो, रह हिंदी के पास।

सीता लक्ष्मण राम सब, हैं हिंदी के शब्द।
हिंदी शब्दों का करो, आजीवन सम्मान।
हिंदी-हिंदुस्तान से, हो अपनी पहचान।
हिंदी उच्चादर्श से, जगत होय निःशब्द।
हिंदी में हर काम हो, हिंदी में हो नाम।
हिंदी में आत्मा बसे, हिंदी हो शिवधाम।

152- स्वर्णमुखी छंद
(विवेकानंद-एक परिचय)

जहाँ विवेक वहीं आनंदम।
उत्तम निर्णय करो यथोचित।
भेदभावनामुक्त सुपोषित।
हो निष्पक्ष भजो गोविंदम।

सद्विवेक का हो विस्तारण।
न्यायपन्थ का होय प्रदर्शन।
हो सर्वत्र उचित का दर्शन।
दिखे समस्या का निस्तारण।

सबमें जागे सहज वेदना।
पर दुख देख दुखी जो होता।
वही सुहृद सबमें सुख बोता।
मानवता को नहीं वेधना।
जो विवेक का परिचय देता।
वही विवेकानंद चहेता।

153- स्वर्णमुखी छंद
(मकर संक्रांति)

है संक्रांति मकर अति पावन।
अतिशय धार्मिक शुभ फलदायक।
माघ मास मध्य यह नायक।
पर्व शिरोमणि प्रिय मनभावन।

मकर राशि में सूर्य विराजत।
सहज भाग्यवान उत्तरायण।
हो भास्कर का प्रिय पारायण।
अति मनमोहक दिवस लुभावत।

दान-पुण्यमय निःसंदेहा।
गुड़-तिल-चावल अन्नदान कर।
दया भाव हो दीनवान पर।
मोक्ष प्राप्त कर बने विदेहा।
क्रियाकर्म हो सुंदर उत्तम।
भजो भानु दिनकर पुरुषोत्तम।

154- स्वर्णमुखी छंद
(प्रीति परस्पर)

सकल भुवन में घूमा दर-दर।
चला पूछता एक-एक से।
मिला बहुत से नीक-नेक से।
चला खोजने प्रीति परस्पर।

बहु चर्चित है स्वर्णमुखी सी।
अति सुंदर भावुक प्रिय वादिनि।
सौम्य सरल निष्काम सुहागिनि।
अति सुमुखी शालीन सुखी सी।

जगती में इसका अभाव है।
दिखे सभी आपस में लड़ते।
प्रीतिहीन सब दिखे झगड़ते।
वेशकीमती उच्च भाव है।
प्रीति वहीँ है दिव्य निराली।
जहाँ विशाल हृदय रस प्याली।

155- स्वर्णमुखी छंद
(प्रीति-प्रेम मिलन)

प्रीति राधिका प्रेम कन्हैया।
रस प्रधान द्वय सगुन सगुण नित।
रस बरसाते उभय जगत हित।
प्रीति-प्रेम अति सहज खेवैया।

प्रेम-प्रेमिका मिलन जगत है।
सृष्टि विधाता उभय रसिक मन।
वृंदावन में नित थिरकत तन।
स्वागत करता सदा स्वगत है।

प्रियता मधुता सहज सरलता।
एकाकार ब्रह्ममय शिवमय।
अथक अलौकिक अकथ स्नेहमय।
तत्व विनष्ट समूल गरलता।
प्रीति-प्रेम हो जीवन दर्शन।
होय नवल नित नियमित स्पर्शन।

156- स्वर्णमुखी छंद
(वियोग)

दुसह वियोग नहीं सह जाता।
है वियोग संयोग कष्टप्रद।
मन अति व्याकुल चिंतित दुखप्रद।
किससे कहूँ नहीं कह पाता।

रोग नशावत घुला-घुला कर।
हृद में अग्नि सदा झुलसावत।
सकल वदन को सदा जलावत।
सदा तड़पता मन रो-रो कर।

पागल मन जागत दिन-राती।
मनोरोग की दवा नहीं है।
क्या वियोग की दवा कहीं है?
काटत जीवन है इस भाँती।
क्या वियोग को योग समझ लूँ?
अथवा इसको रोग समझ लूँ?

157- स्वर्णमुखी छंद

मीना रामबली बड़भागी।
रामप्रवेश नित्य सहयोगी।
उम्मीदों का मंच निरोगी।
स्वर्णमुखी लेखन अनुरागी।

उम्मीदों का आसमान प्रिय।
भावों का यह भंडारण है।
वीणा स्वर का उच्चारण है।
रहता रचनाकारों के हिय।

स्मृति आनंद बहुत मनमोहक।
लिखतीं खुश हो स्वर्णमुखी हैं।
बनी प्रशिक्षु कुशल सुमुखी हैं।
स्वर्णमुखी छंदों की शोधक।
सभी प्रशिक्षु सहज जिज्ञासू।
स्वर्णमुखी के महज पिपासू।

158- स्वर्णमुखी छंद

उम्मीदों का आसमान है।
आकांक्षी यह सुंदरता का।
देता दान सदा मृदुता का।
प्रेमयुक्त धनवान ज्ञान है।

आसमान है मधु का प्याला।
है उम्मीद बहुत पीने का।
स्वर्णमुखी बनकर जीने का।
लिख कर सभी मस्त मतवाला।

मादक मोहक मंच निराला।
रचनाकार लिखा करते हैं।
उत्तम काव्य रचा झरते हैं।
रचनाओं की स्वर्णिम माला।
स्वर्णमुखी को जो रचता है।
देवलोक में वह रहता है।

159- निर्मल छंद

चलते रहना कहते चलना।
हरिओम सदा जपते बढ़ना।

प्रतिवाद विवाद नहीं करना।
चुपचाप सदैव रहो मनसा।

शुभ पंथ सदा गह कर रहना।
यह राह सुखांत सदा जग में।

मन से मत मानव को छलना।
हर मानव में शिवराम बसे।

संसार लगे खुद का अपना।
सबके प्रति सुंदर सोच रहे।

सबका हितसाधक बन दिखना।
सन्देश बने जग में विचरो।

अनुकूलन स्थापित कर चलना।
मन में नित शीतल भाव रहे।

समदर्शन ग्रन्थ पढ़ा करना।
समता सुख का प्रिय कारण है।

प्रिय मीत सदा सुखदा करना।
हर मीत सुप्रीत सहायक हो।

निज में मधु प्रेम बने बहना।
बन जा सबकी सरिता विमला।

160- चतुर्दश पदी
(साजन)

साजन गया विदेश जब, घर का कोना सून।
आँखों से झर-झर बहत, झरना दूने-दून।।

साजन बिन तड़पत तन-मन-उर।
अति उदास है नित अंतःपुर।।
साजन जीवन की बगिया है।
बिन साजन यह मन जोगिया है।।

सूख गया मन का चमन, सूना घर का द्वार।
मचा हुआ कोहराम है, दूर हुआ है प्यार।।

बैठा मन का हर कोना है।
हुआ हराम आज सोना है।
समझाने पर नहीं मानता।
बुधि-विवेक को नहीँ जानता।।

साजन!आओ, मत विदेश रह।
सजनी संग सदैव रहन चह।।

161–कुण्डलिया

सजनी तेरी याद में, मन अधीर बेचैन।
नींद गयी आकाश में,नेत्र नीर दिन-रैन।
नेत्र नींर दिन-रैन,गंग आँखोँ में बहता।
श्वेत रंग भूचाल,निरन्तर आता रहता।
कहें मिश्र कविराय, नगिनि बन डसती रजनी।
साजन सहत वियोग, इसे क्या जाने सजनी??

सजनी निष्ठुर हो चली, आज मात के गेह।
जीते जी साजन हुआ,बहुत निराश विदेह।।
बहुत निराश विदेह, देह-मन सब विगलित हैं।
उठते भाव तरंग, सभी कुंठित विचलित हैं।
कहें मिश्र कविराय,रहा नहिं साजन वजनी।
आता है भूकंप, रूठ जाती जब सजनी।

162–हरिहरपुरी की कुंडली

सुंदर प्रीति प्रसन्न मन, करे जगत में नाम।
अक्षुण्ण वैभव संपदा, यह शाश्वत निष्काम।।
कहें मिश्र कविराय,नीति उत्तम हो मनहर।
लगे कहीं न विराम, निरन्तर देखो सुंदर।।

जिसमें अमृत कलश है, वह है अमृत लाल।
लाल गुलाबी रंग ही, उस मोहक की चाल।।
कहें मिश्र कविराय, भरा है अमृत उसमें।
सुंदर चित्त कृपाल,भाव मधुरिम हो जिसमें।।

जिसके पावन बोल हैं,कपटरहित हर भाव।
वही डालता लोग पर, अपना अमिट प्रभाव।।
कहें मिश्र कविराय, चहेते होते उसके।
मधुर दिव्य अनमोल,कृत्य परहित हैं जिसके।।

163–हाँ,मैं नारी हूँ ।

दोहा-
अति सुंदर भावुक बहुत, दिव्य भाव अनमोल।
घोला करती सृष्टि में, सदा प्रीति के घोल।

चौपाई-
मैं नारी अति सहज स्वभाऊ।
सौम्य सुशीला अधिक प्रभाऊ।।
सदा जगत की रचना करती।
हितकर मोहक वचना कहती।।

रत्नगर्भिणी मैं धरती हूँ।
बहु रूपों में दुख हरती हूँ।।
नवरस युक्त रसीली रसधर।
धर्मधुरंधर सद्गुण शिव वर।।

महा तपस्विनि शिष्टाचारी।
न्यायमार्गिनी न्यायाचारी।।
पारदर्शिता अति सुखकारी।
जगत पालिका मैं सुकुमारी।।

मानवता ही मेरा जीवन।
रचती सदा प्रेम का उपवन।।
मेरा जीवन गंगा सागर।
मैं हिम गिरी सम उत्तम नागर।।

अटल अचल अद्वैत अहिंसा।
अर्थ अनन्य सुमित्र प्रशंसा।।
आदि अनादि अनंत असीमा।
आदर आदरणीय सुसीमा।।

मान्य मान्यता मान महातम।
हूँ प्रकाशमय हरती जग तम।।
विश्वासी विश्वास विश्वमय।
शिवाकार सारस्वत शिवमय।।

ज्ञान ध्यान शुभमान शिवालय।
नेति नेति अद्भुत विद्यालय।।
प्रियकर हितकर रुचिकर योगा।
विद्या विनय विनम्र निरोगा।।

सावधान तल्लीन सुकर्मी।
बेहद अनुशासित शिवकर्मी।।
पूजनीय मैं जग की रानी।
परम स्वतंत्र तंत्र भव शानी।।

दोहा-
मैँ नारी देवी सदा, करती जग कल्याण।
मेरे हिय में पय भरा, दया-करुण का प्राण।।

164– स्वर्णमुखी छंद

सदा रमण कर अपने अंदर।
अंतस में असली सच्चाई।
मन की करना सतत दवाई।
मणि-माणिक बहु रत्न समंदर।

अंतर्मन को सदा सँवारो।
मन को शिक्षित करते रहना।
आत्मदेश की ओर टहलना।
मनोवृत्ति को सतत सुधारो।

अपने में ही रम जाना है।
विश्लेषण करते चलना है।
कमियाँ दूर किया करना है।
अंतस में ही जम जाना है।
जीवन को खुशियों से भर दो।
मन को नित्य नियंत्रित कर दो।

165– अभिमुखी छंद

साईं धाम चला जो करता।
क्रमशः कदम बढ़ाये चलता।
उसको साईं गले लगाते।
जो साईं में श्रद्धा रखता।

कलियुग में साईं अवतारी।
बहुत दयालू शिष्टाचारी।
चमत्कार कर नाम कमाये।
देवशक्तिसम्पन्न पुजारी।

जो साईं जी को भजता है।
वह सात्विक सुंदर बनता है।
जो साईं का करता कीर्तन।
वह उत्तम खुद को गढ़ता है।
“श्रद्धा-सबुरी” महामंत्र है।
साईं जी का दिव्य तंत्र है।

166–विमल छंद

रे सखि!चलो राम के घर पर।
वहीं रहेंगे हम तुम डट कर।।

राम नाम का नित्य जतन कर।
राम रमण केवल करना है।।

राम नाम हो नित जिह्वा पर।
राम ढंग हमको धरना है।।

राम नाम से प्रेम किया कर।
राम संग निश्चित रहना है।।

रहना सियाराममय बनकर।
अवलोकन हो सकल जगत में।।

उठत जागते राम भजन कर।
चलते-फिरते देख उन्हीं को।।

राम धाम में सदा भ्रमण कर।
हर कंकड़ में वही विराजत।।

राम मंत्र का सदा जपन कर।
राम राम बस कहते जाओ।।

सुघर राम-सीता अति सुंदर।
यही मंत्र सम्पूर्ण तंत्र है।।

उभय मध्य है नहिं कुछ अंतर।
द्वय अद्वैत एक रस वाणी।।

त्याग द्वंद्व को भज परमेश्वर।
सीता-राम ब्रह्म परिपूर्णा।।

राम कृत्य आदर्श धरोहर।
ख्याल मान सम्मान करो बस।।

राम नाम अति पावन भू- पर।
अमृत अमर रसायन बीजक।।

167–स्वर्णमुखी

सत्कृति से अमरत्व मिला है।
सुंदर कर्म किया जो करते।
जगती में वे जीवित रहते।
जीवन मोहक चमन खिला है।

दोषदृष्टि अवसाद बुलाती।
गुणग्राहक खुद संस्कृति बनता।
बना सांस्कृतिक विचरण करता।
अच्छी वृत्ति सु -स्वाद चखाती।

दोष खोजकर दूषित बन मत।
दोषवृत्ति इक मनोरोग है।
खुद की गलती खोज योग है।
अच्छे गुण के प्रति रह सहमत।
भाव पंथ है विमल निराला।
भावयुक्त बन रह मतवाला।

168– स्वर्णमुखी

प्रेम करो सम्मान दो, छोड़ कपट कुविचार।
जिससे चाहो प्रेम कर, यह है तेरे हाथ।
सच्चे भावों का रहे, जीवन भर प्रिय साथ।
प्रेम बाँट कर प्रेम का, करना नित विस्तार।

प्रेम कॄष्ण का नाम है, प्रीति राधिका भाव।
चित्तवृत्ति अतिशय विमल, रचे दिव्य संबन्ध।
त्यागमयी सद्भावना, का हो शिव अनुबन्ध।
कृष्ण-राधिका सा खिले, सबका कमल-स्वभाव।

सावन सा जीवन बने, अति पावन हो दृष्टि।
मन से सात्विक प्रेम हो, हो संयम से प्यार।
कोमल भावुक मृदुल मन, करे शिष्ट व्यवहार।
मेह बने बरसा करे, प्रेम-प्रीति की वृष्टि।
प्रेम-प्रीति अद्वैतमय, नहीं द्वंद्व का रूप।
एकीकृत हो ब्रह्ममय, बन हर दिल का भूप।

169– विमल छंद

मानवता को हृदय में, हर्षित हो नित पाल।
मानवता में है छिपी, सुखद भाव की चाल।।

जीव मात्र के स्नेह से, विपदाओं को टाल।
बसा स्नेह में जीव के, प्रति सच्चा अनुराग।।

संवेदना महान से, डरता रहता काल।
जो संवेदनशील हैं, वही देव के रूप।।

मानवता रमणीक अति, प्रिय मानव रखवाल।
सबके प्रति शुभकामना,का हो सदा प्रयोग।।

मानव बनना सहज है, मन में बसे मराल।
हंस वृत्ति अनुपम परम, उर में जागे नित्य।।

मानवता देती सहज, सबको सुख तत्काल।
रख इसको जीवित सदा,देना कभी न मार।।

मानवता बिन जगत में, आता है भू-चाल।
मानवता रक्षित रहे,मन में हो यह ध्यान।।

मानवता से हीन नर, करता सदा बवाल।
जिस मानव में प्रेम है, वही शांति का दूत।।

मानवता में लिप्त मन, रखता सबका ख्याल।
हृदयहीन मानव दनुज, रखता सबसे वैर।।

मानवता की हो सदा, सतत जाँच-पड़ताल।
मानवहीन समाज में, नित्य भूत का वास।।

170–स्वर्णमुखी

ज्ञानसिंधु में जो भी डूबा।
ज्ञान बूँद जिसको अति प्यारा।
बना ज्ञान-नीर संवाहक।
लगा डूबने कभी न ऊबा।

ज्ञान ढूढ़ते जो चलता है।
कण-कण के चिंतन में बहता।
जन-जन से नित मिलता रहता।
ज्ञानामृत संग्रह करता है।

जानो क्या अंतिम सच्चाई?
नित्य खोज अंतिम सत्ता को।
हिलते पीपल के पत्ता को।
ढालो खुद को करो भलाई।

खोजोगे तो पा जाओगे।
दिव्य लोक में छा जाओगे।

171–कुण्डलिनी

आकर्षक हो आचरण, खिंचते जायें लोग।
एक इकाई विश्व का ,हो निर्माणी योग।।
हो निर्माणी योग, सभी बन जायें दर्शक।
सबके मृदुल स्वभाव, दिखे सच में आकर्षक।।

दर्शन वेदों का करो, पढ़ पुराण वेदांत।
इन पावन सद्ग्रन्थ में, छिपे दिव्य सिद्धांत।।
छिपे दिव्य सिद्धांत, अंकुरित करते चिंतन।
मानवतता का ज्ञान,कराता हिन्दू दर्शन।।

हँसते पीना जाम हर,चख मदिरा का स्वाद।
मधुशाला का जाप कर, रह चेतन आवाद।।
रह चेतन आवाद, मंदिर का सेवन करते।
पीना सीख सुशांत, प्रीति प्याले को हँसते।।

जीना जिसको आगया,वही भव्य इंसान।
सत -शिव-सुंदर वृत्ति से,बनो स्वयं भगवान।।
बनो स्वयं भगवान, आत्मचिंतन कर पीना।
खुद को परखो नित्य, भाव प्रिय बनकर जीना।।

आता जो है द्वार पर, कर उसका सत्कार।
कभी उपेक्षित भाव से, नहीं करो उपचार।।
नहीं करो उपचार, दान दे कर बन दाता।
करो प्रेम से बात, पास तेरे जो आता।।

172–आँसू…..

नहीं गीत गाने का मन कर रहा है।
आँसू बहाने का मन कर रहा है।
नहीं गीत गाने का…..

कभी तुम मिले थे गले से लगे थे।
बनकर बहारें ह्रदय में खिले थे।
अकेले का साथी बने कर मिला कर।
हँसाये थे हमदम को उर से लगा कर।
चले छोड़ अब तुम ये मन रो रहा है।
तुम्हारी सिला पर गगन रो रहा है।
नहीं गीत गाने का….

मिले बिन न रह पाते तुम एक पल तक।
उदासे से रहते तुम्हीं तब मिलन तक।
बरसती थीं आँखें जुदाई के पल में।
जलता वदन व्यग्र स्याही के जल में।
नहीं रुख मिलाते ये क्या हो रहा है?
निराशा में जीता ये मन रो रहा है।
नहीं गीत गाने का…..

बड़े बेवफ़ा तुम वफ़ा रो रहा है।
दुर्भाग्यशाली ये मन रो रहा है।
नहीं गीत गाने का….

173–कुण्डली

छाया दुखद कटे सदा, मन में हो उल्लास।
दुख देनेवाले हटें,मन मे जागे आस।
कहें मिश्र कविराय, शुद्ध रखना मन-काया।
हो जग से वैराग्य, लगे मधुरिम हर छाया।।

बदले-बदले लोग से, आशाओं को छोड़।
लगे रहो निज काम में, दुनिया से मुँह मोड़।
कहें मिश्र कविराय,सदा अनुकूलन कर ले।
छोड़ो उनका संग, दिखें जो बदले-बदले।।

सबकुछ सुंदर मानकर, रहो नित्य मनमस्त।
दर्द सहो बढ़ते रहो, कर संकट को पस्त।।
कहें मिश्र कविराय,सीखते चलना कुछ-कुछ।
रहो नित्य चैतन्य, दिव्य चिंतन हो सबकुछ।।

रोना मत कर जागरण, मन में हो समभाव।
समझ विरह को योग्सम, योगी होय स्वभाव।।
कहें मिश्र कविराय, जान हर सिक्का सोना।
खोटा सिक्का देख, कभी मत मन में रोना।।

सिक्का को सिक्का समझ, सिक्का से कर प्रीति।
हर सिक्का में राम की, पढ़ लो उत्तम नीति।।
कहें मिश्र कविराय, करो नियमित मन पक्का।
नीक-फीक हर शब्द,दीखता बनकर सिक्का।।

174–स्वर्णमुखी

जो गुरु कोअपमानित करता।
आत्म पतन की राह खोजता।
सदा बहिष्कृत बनकर जीता।
वही नरक अनुगामी बनता।

गुरु के प्रति सम्मान भाव रख।
कदम-कदम पर कर गुरु पूजा।
गुरु ही महादेव नहिं दूजा।
ज्ञानामृत फल आजीवन चख।

गुरु ही सच्चा दिग्दर्शक हैं।
गुरु को खोजो घूम-घूमकर।
जग का कण-कण चूम-चूमकर।
गुरु जीवन के निर्देशक हैं।

सच्चे गुरु की नित तलाश कर।
मिल जायें तो जन्म सफल कर।।

175–स्वर्णमुखी

दिल लगाकर प्यार पाना।
छोड़ न देना साथ कभी।
समझो जग में मित्र सभी।
बनकर रहना दीवाना।

दिल ही व्यापक बन जाये।
समझो इसकी गहराई।
देखो इसकी ऊँचाई।
मन में कोमलता आये।

निष्ठुरता को त्याग चलो।
भोलापन ही आगे हो।
सुंदर भावन जागे हो।
भावुक बनने हेतु गलो।

पीते रहो प्रीति हाला।
ले कर में स्वर्णिम प्याला।।

स्वर्णमुखी

बन जाये जो स्वर्णमुखी वह।
सुमुखी जैसी भावभंगिमा।
इंद्र धनुष की दिव्य ज्योतिमा।
इस धरती पर सदा सुखी वह।

प्रातिभ गाते स्वर्णमुखी हैँ।
स्वर्णमुखी अतिशय मनभावन।
बहुत सुहावन सुंदर पावन।
दिखत निरन्तर सूर्यमुखी हैं।

चौदहपदी बहुत सुकुमारी।
चौपाई सम यह अति शीतल।
इससे शोभित बौद्धिक जल-थल।
अधिक दुलारी दिव्य पियारी।

स्वर्णमुखी को जो लिखता है। बहु-आयामी वह बनता है।।

176–गुरु की महिमा
(आल्हा छंद)

गंगा-यमुना प्रिय सरस्वती,
के प्रवाह सा गुरु का ज्ञान।
उच्च शिखर हिम गिरि का वासी,
शिवशंकर जिमि गुरु का ध्यान।
गहन तपस्वी ज्ञान विशारद,
विद्याविद गुरु सर्व महान।
गंगा सागर जैसा निर्मल,
स्वच्छ धवल सद्बुद्धि प्रधान।
ज्ञानसंग्रहक नित संप्रेषक,
संस्कृति रचनाकार सुजान।
है विकास का पंथ प्रदर्शक,
करता जगती का उत्थान।
नहीं किसी से हार मानता,
बुद्धि स्रोत अनुपम बलवान।
ज्ञानार्जन कर दानी बनता,
मृतकों में भरता है जान।
अद्वितीय गुरु की महिमा है,
सबसे ऊपर गुरु की शान।
सकल भुवन में विचरण करता,
बुद्धिविनायक ऊर्जावान।
यशभागी बड़भागी अंबर,
सा अति उन्नत गुरु श्रीमान।
भाग्य खोलते वही शिष्य का,
ज्ञान विधाता गुरु भगवान।
ज्ञान-अन्न दे भूख मिटाते,
प्यास बुझाते दे जल- दान।
ज्ञानप्रकाशपुंज बन स्थापित,
मंगलमय गुरु भानु समान।
ज्ञान लहर से मन सिंचित कर,
गुरु पाता जग में सम्मान।

177– स्वर्णमुखी छंद

निर्मल प्रीति किया जो करता।
उसमें प्रकट सदा ईश्वर हैं।।
उसके भाव सदा सुंदर हैं।
प्रेम यज्ञ नित करता रहता।।

निर्मल मन में प्रीतिवास है।
सदा प्रीति का प्रिय उच्चासन।।
सभी दिलों पर करती शासन।
प्रीति गमकती मधु सुवास है।।

प्रीति भुजाओं को फैलाकर।
सबको अंतस में भरती है।।
सबके दुख-पीड़ा हरती है।
करती पावन नित नहलाकर।।

प्रीति जगत की शुचिमय माया।
इसकी करुणा रसमय काया।।

178–महापुरुष
(आल्हा छंद)

महापुरुष बनना अति दुर्लभ,
यह मन का अति पावन भाव।
जिसके मन में पाप नहीं है,
उसका निर्मल सहज स्वभाव।
जिसने दान दे दिया खुद को,
उसका सबपर अमिट प्रभाव।
जो अभाव को भाव समझता,
उसमें महापुरुष का भाव।
पर दुख देख दुखी जो होता,
वह दुखियों के धोता घाव।
तपते थकित हेतु शरणालय,
बनकर करता शीतल छाँव।
सदा ठिठुरते देख गरीबी,
महापुरुष खाते हैं ताव।
कोमल चित्तवृत्ति से शोभित,
प्रेम मंत्र के छूते पाँव।
कुंठारहित सर्व हितकारी,
मंगलकारी उनका गाँव।
द्वेषमुक्त शिवमय कल्याणी,
सत्य अलौकिक प्रिय नम दाव।

179–स्वर्णमुखी

जिसकी रसना से वचानामृत।
सदा टपकता वह चंदा है।
महामना मोहक वंदा है।
लिखता गाता पढ़ता संस्कृतः।

प्रेम रसामृत जो बरसाता।
हर आँगन में वही घूमता।
सबके दिल को वही चूमता।
गीता-रामायण को गाता।

जिसके दिल में प्रीति समंदर।
वही बड़ा धनवान सुधाकर।
रामहृदय अति प्रिय करुणाकर।
अतुलनीय अनुपम शिव सुंदर।

प्रेम रसायन पीते रहना।
मधुशाला को रटते चलना।।

180–स्वर्णमुखी

मित्र कष्ट अति व्यकुल करता।
मन-काया को क्षीण बनाता।
दुखियों का यह नींद उड़ाता।
सहनशक्ति को हरता रहता।

दुश्चिंताये सदा घेरतीं।
दुख में ही मन केंद्रित होता।
दुखद बीज को नियमित बोता।
दुख की मनिया सदा फेरतीं

रहती मन में सदा उदासी।
दिल में रस वियोग की धारा।
अति अशांत दिल नित दुखियारा।
आँखें सुख की रहतीं प्यासी।

दुख में धीरज धर्म पन्थ है।
संकट मोचन दिव्य ग्रन्थ है।।

181–युग परिवर्तन

जमाना एक ऐसा था, सभी मिल मुस्कराते थे।
न जाने हो गया क्या देख,अब ये मुँह चुराते हैं।
बहुत सुंदर सुहाना था समय, सब गीत गाते थे।
सभी सुख-दुख के साथी बन, बहुत नजदीक आते थे।
अब तो हाल मत पूछो,इन्हें संगति बुरी लगती।
अकेले झेलते हैं मार, टूटी खोपड़ी बजती।
इन्हें हर आदमी से, द्वेष की ज्वाला धधकती है।
सुखी को देख होते अति दुखी,दया-करुणा सिमटती है।
बड़ा बनने के चक्कर में, अकेला टूटता मानव।
घृणा की ओढ़ कर चादर, बना दिखता दरिद-दानव।
इन्हें पैसे से मतलब है, इन्हें परिजन-स्वजन झूठे।
इन्हें है फिक्र अपनी बस, देखते पेड़ सब तूठे।
न जाने कौन सी संस्कृति का, ये विस्तार करते हैं।
कुल्हाड़ी मार पैरों में,लुढ़कते पाँव चलते हैं।

182–ऋतुराज आदरणीय वसंत जी

तुम ऋतुओं के राजकुमार,
राजा महाराज सिरताज।
तुम अति मोहक दिव्य महान,
है ललाट पर शोभित ताज।
रथ पर बैठे रहते मस्त,
करते सबके मन पर राज।
तुम मुस्काते हँसते-गाते,
जगती करती तुझ पर नाज।
सहज थिरकते मंथर चाल,
अतिशय मादक प्रिय आवाज।
रूप सुन्दरम मधुमय भाव
हरित वेश मनरंजक साज।
तुझे देख खुश होत निसर्ग,
हरियाली का होत स्वराज।
कोयल पढ़ती स्वागत गान,
मीठे स्वर मधुरिम अंदाज।
सरसो के प्रिय पीले पुष्प,
देते केवल तेरा दाज।
आम्र बौर करते यश गान,
देख वसन्ती चोलाबाज।
मधुकर होते हैं मदमस्त,
चूस-चूस फूलों की गाज।
चारोंतरफ सुनहरा मौसम,
है वसंत का यह मधुराज।

183–स्वर्णमुखी

आता है वसंत भारत में।
इस धरती से उसे प्रीति है।
गाता आता प्रेम गीति है।
भारत सदा खड़ा स्वागत में।

आदरणीय वसंत मदनमय।
अति मनमोहक प्रकृति-पुरुषमय।
हैं ऋतुराज सुघर शीतलमय।
दशो दिशाएँ दिखतीं मधुमय।

प्रकृति नाचती थिरक-थिरक कर।
कोयल कुहू-कुहू करती है।
धरती पीत-हरित लगती है।
खग मधु कलरव मचल-मचल कर।

हे ऋतुराज!यहीं तुम रहना।
भारतीय संस्कृति बन चलना।।

184–स्वर्णमुखी

नैतिक बल ही सबल बनाता।
नैतिकता ही शक्तिमती है।
परम विवेकिनि रूपमती है।
नैतिक मानव सदा लुभाता।

नैतिकता की कंचन काया।
नैतिकता है जिसके उर में।
ईश्वर उसके अंतःपुर में।
नैतिकता में करुणा-दाया।

मनवता का पाठ पढ़ाती।
नैतिकता में चमक-दमक है।
रंग गुलाबी मधुर महक है।
नैतिकता स्वर्गिक हर भाँती।

नैतिक बनकर जो जीता है।
वह अमृत प्याला पीता है।।

185–गुरुग्रन्थ

दोहा-
गुरु ही पावन ग्रन्थ हैं, गुरु वाणी भगवान।
गुरु के मोहक वचन पर, करना मन से ध्यान।।
चौपाई–
गुरु की महिमा अपरम्पारा।गुरु रचता अनुपम संसारा।।
वीणा लेकर चलता रहता।ध्वनित सभी को करता चलता।।
शब्द-भाव अरु अर्थ परम प्रिय।धँसता रहता शिष्यों के हिय।।
गुरु वचनों को दिल में रखना।तदनुसार नित चलते रहना।।
हर अक्षर गुरु रूप समाना।यही समझ कर बनो सुजाना।।
गुरु बिन ज्ञान नहीं मिलता है।उर का कमल नहीं खिलता है।।
गुरु चारों पुरुषार्थ प्रदाता।गुरु से रखना केवल नाता।।
गुरु ही सच्चा खेवनहारा।इस जीवन में सबसे प्यारा।।
गुरु ही पुस्तक लेखक शिवमय।वेदव्यास विज्ञ पण्डितमय।।
गुरु मोहक मोदक अति रुचिकर।छप्पन व्यंजन घृत पक्वम वर।।
परम स्वाद विख्यात पुनीता।कृष्णार्जुन संवाद सुगीता।।
गुरु अनमोल अनंत गगनमय।सदा प्रफुल्लित हर्ष गेयमय।।
गुरु व्यक्तित्व ग्रन्थमय रूपा।सारस्वत साधक प्रिय भूपा।।
ज्ञान अथाह असीम विशाला।गुरु देते खुशियों का प्याला।।
दोहा–
गुरु की महिमा जान कर, रहो उन्हीं के साथ।
दैन्य भाव को दूर कर, देते दीनानाथ।।

186–स्वर्णमुखी

प्रेम मधुर रस मह मह महकत ।
अति स्वादिष्ट बहुत प्रिय व्यंजन।
शरद काल का यह शुभ खंजन।
प्रेम परिंदा चह चह चहकत।

अति व्यापक सर्वत्र एक रस।
हृदय प्रदेश निवास धाम है।
सात्विकता से युक्त श्याम है।
पावन परम दिव्य मोहक यश।

प्रेम सुपात्र स्वनाम सुधन्या।
रसाकार अमृत रससाधक।
ब्रह्मनिष्ठ अज अमि-आराधक।
सदा पूजनीया प्रिय कन्या।

प्रेम तपस्वी अजर-अमर है।
सुखद सुघर शिवमय अंबर है।।

187–स्वर्णमुखी

प्रेम अति अजर अमर है, गहरा दिव्य अनंत।
प्रेम सृष्टि आधार है, यह अनंत विस्तार।
नहीं प्रेम से है बड़ा,यह सारा संसार।
सदा प्रेम को पूजते, कोटि-कोटि श्रीसंत।

पका हुआ फल प्रेम है, भाग्यवान का भाग्य।
सबसे ऊपर यह खड़ा, पीत वस्त्रमय स्नेह।
वही सफल इस लोक में, जिसका मधुरिम गेह।
जो इसका रस पा रहा, उसका अति सौभाग्य।

बिना प्रेम मिलता नहीं, जग में कोई मीत।
प्रेम परस्पर मिलन से, रग-रग में उत्साह।
मिलती अति संतुष्टि है, पूरी मन की चाह।
वही बड़ा है आदमी,जो गाता मधु गीत।

प्रेम शुद्ध पावन जलद, प्यासे का है नीर।
प्रेम हृदय में उतर कर, हरता पीड़ा-पीर।।

188–स्वर्णमुखी

छटा प्रकृति की बहुत निराली।
सुंदर वन उपवन हिमनागर।
झरना सरिता जलद दिवाकर।
अति मनमोहक अनुपम प्याली।

खग कलरव मनमस्त सुहावन।
क्रीड़ा करते उड़-उड़ गगना।
सुक-पिक नाचत-गावत अँगना।
प्रकृति गोद में नियमित सावन।

लोकलुभावन छवि नैसर्गिक।
सूरज-चाँद-सितारे चमकत।
प्रिय सुगंध तरुवर से प्रसरत।
आह्लादक मनहार अलौकिक।

है अनमोल प्रकृति की माया।
कंचन वरण सुशोभित काया।।

189–स्वर्णमुखी

प्रीति दिवस की यह बेला है।
थिरकेंगे हम दोनों मिलकर।
महँकेंगे हम चूम-चूम कर।
अति रंगीन मधुर खेला है।

आओ मेरी प्यारी रानी।
कभी नहीं हम तड़पायेंगे।
प्रेम मधुर रस बरसायेंगे।
आजीवन रहना दीवानी।

राधा बनकर नर्तन करना।
होगा नित संवाद प्रेममय।
गायेंगे हम बनकर मधुमय।
कान्हा संग मचलती रहना।

एकाकार रूप धर आओ।
प्रीति पर्व नित दिव्य मनाओ।।

190–स्वर्णमुखी

सावन बन दिल में छा जाओ।
बरसो बनकर मेह निरन्तर।
मधुर मिलन की छाया बनकर।
प्रिय भावों का जश्न मनाओ।

लगना गले श्वांस बन उतरो।
प्रेम शर्त स्वीकार करो बस।
दिल से अब इजहार करो बस।
बन स्वर्गिक सुख दिल में पसरो।

यह गुलाब का फूल थाम लो।
हर्ष और उल्लास मनाओ।
अपना प्यारा रूप दिखाओ।
सहज गमकता चूम नाम लो।

हाथ पकड़ कर छोड़ न देना।
प्रियतम को वश में कर लेना।।

191–स्वर्णमुखी

तप्त हृदय को शीतल कर दो।
जलता रहता रात-दिवस यह।
नहीं चैन से रहता है यह।
मेरे मन को निर्मल कर दो।

मन को मंदिर बन जाने दो।
गंगा जल से धोते रहना।
चंदन-इत्र पोतते रहना।
प्रभु को स्थापित हो जाने दो।

प्राणप्रतिष्ठा हो प्रतिमा में।
प्रतिमा में संसार बसा हो।
सारी दुनिया मित्र-सखा हो।
अद्वितीय हो यह उपमा में।

मन में पावन भाव जगाओ।
इस धरती को स्वर्ग बनाओ।।

स्वर्णमुखी

जीवन में समता आयेगी।
सुंदर चिंतन करते जाना।
रत्न-सिंधु में नित्य नहाना।
तब मन में ममता छायेगी।

आजीवन संघर्ष किया कर।
आलस त्याग निरन्तर बढ़ना।
उच्च शिखर पर चढ़ते रहना।
जीवन का उत्कर्ष किया कर।

एक मात्र मानव बनना है।
मानव ही रत्नाकर सागर।
सदा उगलता मोहक आखर।
सत्य पंथ पर ही चलना है।

मानव ही अनमोल खजाना।
अतिशय सुंदर विज्ञ -सुजाना।।

192–स्वर्णमुखी

लगा मोबाइल पर पहरा है।
चाल-चूल का पता चला है।
चुपके-छिपके नृत्यकला है।
मन में बैठा शक गहरा है।

छिप-छिप-छिप कर बातें होतीं।
दिल की धड़कन बढ़ती जाती।
स्वप्निलता सज-धज कर आती।
खुले प्रणय की रातें होतीं।

पति-मैडम दोनों शंकालू।
फितरत में दोनों रहते हैं।
अलग-थलग दोनों पड़ते हैं।
एक-एक से बढ़कर चालू।

दोनों के जेहन में धोखा।
उभय चाहते लेखा-जोखा।।

स्वर्णमुखी

लगा मोबाइल का चस्का है।
मौका सदा खोजते पगले।
रहे न कोई अगले-बगले।
बातों का होना पक्का है।

मन पर भूत सवारी करता।
इश्क-मोहब्बत का कायल है।
काम-व्यथित चोटिल-घायल है।
रति को अकवारी में भरता।

भूत नाचता घर-आँगन में।
मोबाइल कल्चर अति घाती।
है सवार अब साढ़े साती।
बैठ मोबाइल के गाँवन में।

मोबाइल जीवन की धारा।
इससे नष्ट बहुत परिवारा।।

193–पूर्णिका

चलते रहो राम को ले कर।
पूरी अवधपुरी को दे कर।।

त्याग-तपस्या की शिक्षा ले।
चलना संग राम को ले कर।।

वनवासी बनना सर्वोत्तम।
मत करना अभिमान अवध पर।।

जो भी काँटे चुभे पाँव में।
आगे बढ़ना उन्हें फेंक कर।।

विपदाओं को आँख दिखाना।
उन्हें पछाड़ो सदा घेर कर।।

माया से मत विचलित होना।
असुर गिराओ कूद-कूद कर।।

तप से मिलतीं सकल सिद्धियाँ।
अर्जित करना शक्ति पूज कर।।

रावणहंता बन जाओगे।
लोकहितों का सदा ध्यान धर।।

आत्मतोष ही महामंत्र है।
पा जाओगे इसको जप कर।।

स्वार्थरहित अनमोल जिंदगी।
परमारथ के हेतु मिलन कर।।

कोई नहीं जगत में छोटा।
सब को गले लगाओ डट कर।।

वानर-भालू सभी मित्र हैं।
इन्हें सुनाओ गीत मचल कर।।

विजयगीतिका तुम गाओगे।
लिखते रहो पूर्णिका सट कर।।

194–स्वर्णमुखी

प्रीतिरंग जीवन में भर दो।
प्यार-स्नेह को मन में रखना।
मीठा शब्दोच्चारण करना।
हरी-भरी पृथ्वी को कर दो।

प्रेम सिंधु में डूब नहाओ।
खूब तैरना रंगीला बन।
प्रिय दीवाना सदा रहे मन।
प्रीतिपान की धूम मचाओ।

मन-शरीर को करो प्रेमवत।
बन विदेह प्रेमाश्रु बहाओ।
इस जगती में कृष्ण कहाओ।
बसे हृदय में प्रेम सत्यवत।

प्रेमाक्षर का उच्चारण कर।
प्रेम व्याकरण पारायण कर।।

स्वर्णमुखी–

पूरा जीवन प्रेम दिवस हो।
बनना सीखो प्रीति समंदर।
हृदय चुने अति मधुर स्वयंवर।
घृणा भाव का तहस-नहस हो।

कदम-कदम पर प्रेम पर्व हो।
जगह-जगह हो प्रेम वेदिका।
प्रेम देव की बने वीथिका।
प्रेम दीप प्रज्वलित सर्व हो।

प्रेम मंत्र से हवन-जाप हो।
विश्व लगे अति दिव्य सुहाना।
सिर पर बैठे मधु मस्ताना।
हर मस्तक पर प्रेम-छाप हो।

प्रेम अमर फल चखते जाओ।
स्वयं अमर बन चलते जाओ।।

195–स्वर्णमुखी

प्यार सिर्फ तुमसे है मेरा।
मेरे मन में तुम्हीं बसे हो।
गहरे दिल में तुम्हीं धँसे हो।
मुझको सिर्फ आसरा तेरा।

प्यार किया हूँ सदा करूँगा।
केवल तुझमें ही रहता हूँ।
तुझसे ही बातें करता हूँ।
इस दुनिया से नहीं डरूँगा।

तुझे भूलना नहीं गवारा।
एक-दूसरे के हम पूरक।
मने जयंती नियमित हीरक।
केवल तेरा एक सहारा।

तुझे निरखता पग-पग चलता।
तेरा ही गुणगायन करता।।

स्वर्णमुखी–

तुम मेरे हाथों की रेखा।
एक तुम्हीं मेरी किस्मत में।
तुम्हीं चमकते हो अस्मत में।
मधु जीवन के लेखा-जोखा।

नाम एक है रूप एक है।
हम दोनों अष्टांग योग हैं।
प्रेम -पृष्ठ पर सत्य भोग हैं।
जाड़ा-वर्षा-धूप एक है।

हम दोनों अद्वैत दृश्य हैं।
निराकार-साकार उभय हैं।
सदा निराला प्रेम अभय हैं।
सकल लोक में श्वेत स्पृश्य हैं।

प्रीति-प्रेम को दिनकर जानो।
तेजपुंज प्रिय शिवकर मानो।।

196–स्वर्णमुखी

मुझ नीरस को रसिक बना दो।
नहीं मिला है रस पीने को।
दृग से ओझल पथ जीने को।
इसमें प्रेमिल रस बरसा दो।

है उदास इसका मन पागल।
रुनझुन की आवाज दूर है।
जीवन का संगीत क्रूर है।
देखा नहीं कभी भी पायल।

होठों पर मुस्कान नहीं है।
नहीं लालिमा अंतःपुर में।
सदा कालिमा मेरे उर में।
कोयल का मधुगान नहीं है।

रस की इच्छा जिसमें रहती।
प्रेम गंग उसमें नित बहती।।

197–पूर्णिका

रस वारिद का जमघट होगा।
घर-घर में रस पनघट होगा।।

पुरवइया का आलम होगा।
मधु मस्ताना सरपट होगा।।

दिल में प्रेम हिलोरे लेगा।
कहीं नहीं अब मरघट होगा।।

रस का प्याला कर में होगा।
दिल अति मोहक चटपट होगा।।

आलिंगन का भाव जगेगा।
मन प्रिय निर्मल निकपट होगा।।

पीस-पोय सब मौज करेंगे।
सारा जीवन अविकट होगा।।

बिना शुल्क की सारी सेवा।
जग में कहीं न बतकट होगा।।

सकल धरा पर रस की वर्षा।
कहीं नहीं कटु-खुटमट होगा।।

ये सब संभव तभी दिखेंगे।
जब मन -नद मे शिव-तट होगा।।

198–स्वर्णमुखी

प्रीति नीति पर जो चलता है।
सब के दिल पर छा जाता है।
सब के मन में आ जाता है।
प्रीति रसामृत जो चखता है।

सुंदर चिंतन का है वासी।
प्रीति सदा रहती मुट्ठी में।
दिव्य रसायन अमी-कुटी में।
पावन हृदय प्रदेश निवासी।

नित जो प्रीति पान करता है।
प्रीति उसी की जीवनसंगिनि।
मृदुल मनोरम मधु अर्धांगिनि।
सदा प्रीति से रस बहता है।

प्रीति बसी है जिसके भीतर।
वह बड़भागी मोहक सुंदर।।

199–स्वर्णमुखी

हिम्मत कभी न हार।
रहो सदा कटिवद्ध।
कर्मनिष्ठ प्रतिवद्ध।
कर जग-सरिता पार।

घोर निराशा चीर।
आशा पथ पर दौड़।
पावब मन में पौड़।
हरो सकल निज पीर।

रखो सकल अनुकूल।
उत्तम सोच विचार।
शुभ का करो प्रचार।
काटो सब प्रतिकूल।

मन में बसे जुनून।
रच मोहक कानून।।

200–स्वर्णमुखी

जग को सुंदर चमन बनाओ।
खिले सुगन्धित पुष्प यहाँ पर।
भारी हो मानवता सब पर।
करो सुवासित नित गमकाओ।

कलुषित पुष्पों को उखाड़ दो।
हों गुलाब-चंपा की कलियाँ।
साफ-स्वच्छ हों मन की गलियाँ।
दूषित पौधों को उजाड़ दो।

हरियाली हो सकल धरा पर।
रोगमुक्त सारा जंगल हो।
चारोंतरफ सदा मंगल हो।
आयुष्मती जड़ी वसुधा पर।

सहज विश्व को निर्मित करना।
मन की वृत्ति नियंत्रित रखना।।

रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
ग्राम व पोस्ट-हरिहरपुर (हाथी बाजार),वाराणसी -221405, उत्तर प्रदेश, भारतवर्ष

Language: Hindi
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शांति से खाओ और खिलाओ
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
विष का कलश लिये धन्वन्तरि
विष का कलश लिये धन्वन्तरि
कवि रमेशराज
दिये को रोशन बनाने में रात लग गई
दिये को रोशन बनाने में रात लग गई
कवि दीपक बवेजा
प्रेम
प्रेम
Sanjay ' शून्य'
बात मेरे मन की
बात मेरे मन की
Sûrëkhâ
कभी आंख मारना कभी फ्लाइंग किस ,
कभी आंख मारना कभी फ्लाइंग किस ,
ओनिका सेतिया 'अनु '
कोरोंना
कोरोंना
Bodhisatva kastooriya
मनुष्य को
मनुष्य को
ओंकार मिश्र
#लघु_दास्तान
#लघु_दास्तान
*प्रणय प्रभात*
रक्षाबंधन का त्यौहार
रक्षाबंधन का त्यौहार
Ram Krishan Rastogi
मुझे याद🤦 आती है
मुझे याद🤦 आती है
डॉ० रोहित कौशिक
??????...
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शेखर सिंह
जाति
जाति
Adha Deshwal
जिंदगी के रंगमंच में हम सभी अकेले हैं।
जिंदगी के रंगमंच में हम सभी अकेले हैं।
Neeraj Agarwal
जुनून
जुनून
DR ARUN KUMAR SHASTRI
वन्दे मातरम
वन्दे मातरम
Swami Ganganiya
दिल का कोई
दिल का कोई
Dr fauzia Naseem shad
ड्यूटी
ड्यूटी
Dr. Pradeep Kumar Sharma
मन मंथन कर ले एकांत पहर में
मन मंथन कर ले एकांत पहर में
Neelam Sharma
किसी से दोस्ती ठोक–बजा कर किया करो, नहीं तो, यह बालू की भीत साबित
किसी से दोस्ती ठोक–बजा कर किया करो, नहीं तो, यह बालू की भीत साबित
Dr MusafiR BaithA
बेरोजगार लड़के
बेरोजगार लड़के
पूर्वार्थ
व्यस्तता
व्यस्तता
Surya Barman
आजादी दिवस
आजादी दिवस
लक्ष्मी सिंह
*जन्मभूमि के कब कहॉं, है बैकुंठ समान (कुछ दोहे)*
*जन्मभूमि के कब कहॉं, है बैकुंठ समान (कुछ दोहे)*
Ravi Prakash
- ଓଟେରି ସେଲଭା କୁମାର
- ଓଟେରି ସେଲଭା କୁମାର
Otteri Selvakumar
घूंटती नारी काल पर भारी ?
घूंटती नारी काल पर भारी ?
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
जन्नत का हरेक रास्ता, तेरा ही पता है
जन्नत का हरेक रास्ता, तेरा ही पता है
Dr. Rashmi Jha
23/45.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
23/45.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
*अज्ञानी की कलम*
*अज्ञानी की कलम*
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
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