क्षणिक तैर पाती थी कागज की नाव
क्षणिक तैर पाती थी कागज की नाव
कुछ पल ही उड़ते थे कागज के जहाज
भर देते थे आनंद से, पुलक उठते थे मन
साईकिल के टायर से जब खेले बचपन
अब मंहगी चीजें हैं, ढेर ठाट बाट हैं
जिसका भी मन छूओ, लगता उदास है
खोखली हंसी, चेहरे पर मुस्कराहट
व्यथा को छिपाने का, सब कर रहे नाटक
खूब सारा भर लिया है घर में कबाड़
चैन से बैठने की बस कर रहे जुगाड़
मन में भी ऐसे ही भर रहे कबाड़
खुशी भीतर आए जब हटे ये कबाड़