क्षणिकाएँ
शरम
बेशरम हम हो गये तो शर्म में डूबी हो तुम।
शर्म तब आयी मुझे जब बेशरम बन खुल पड़ी।
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सौन्दर्य को डर
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किसी लावण्यमयी के कपोलों को छूकर आती है हवा।
सँदल सा हो जाता है जिस्म और जाँ इसका।
होते ही वहाशत में बहने लगती है हवा
कहीं भय तो नहीं लुट जाने का लावण्य की दोशीजगी।
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अश्क को शरम कैसी ?
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मैं रोता हूँ तेरी बेवफाई नहीं
अपने हाल पर।
दिल पत्थर का होगा तेरा
मेरा तो पत्थर की किस्मत है।
खोदना चाहे कोई लकीर भी
खोद ले अपनी ही कब्र।
रोने का मुझे ही नहीं तो
अश्क को शरम कैसी ?
क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्
वजह कैसी
उनसे तकरार क्या और उनसे सुलह कैसी?
मुहब्बत का हक है यह‚इसकी वजह कैसी?
तन्हाईयाँ
सुई की नोक की तरह चुभती हैं तन्हाईयाँ।
मेरे चाहनेवाले आसमाँ से नहीं उतरेंगे।
पीना पिलाना
पीजिये‚ पिलाईये होश में रहिये उन्हें बेहोश रखिये।
जिन्दगी के खोखलेपन का खुल जायेगा राज
सो पिला–पिला के उन्हें वदहवासी से होश में रखिये।
फर्ज
मैंने‚नाजनीं तूझे छूने की कसम खायी थी
रतनारे ओठों को अँगुलियों से।
कजरारे आँखों की पुतलियों को।
तूने तड़पाया‚तरसाया मार डाला है।
अब दरगाह पर तू खुद चलकर आयी है।
‘मेरे मजार का पत्थर बिके‚
कुछ कर्ज है क्या?
मैं तो कब्र से भी चुका दूँगा‚
ये है फर्ज मेरा’।
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