क्रिसमस पर कोमल अग्रवाल की कविता
क्या? आज है 25 दिसम्बर
मेरे ऐसे बेतुके प्रश्न पर
गूँजे अपनों के कई स्वर
पर मेरे इस मन के अंदर
यादों के जुगनू झिलमिलाने लगे हैं
सुदूर अतीत में मनाए थे कितने
क्रिसमस सभी याद आने लगे हैं।
हां हां वो जब होता था ना हलवा ही हम बच्चोंका केक
जिसकी फरमाइश करने को गिनते थे हम तीन दो एक
फिर हरे लाल नीले पीले नारंगी जाने कितने रंग के पतंगी
कागजों में लिपटा चला आता था त्योहार
कितने ही पैबंद लगी राजाइ ओढ़
टुकुर टुकुर ताका करते थे छत की सीढ़ियों का छोर
इसी रस्ते तो आएगा वो जादुई बौना
भरकर अपने कंगारूनुमा थैले में पूरा बाजार
वो हरे बादामी कागजों का परिलोक की महिमा गाता क्रिसमस का पेड़
खुद भी झूमता हमे भी लुभाता वो क्रिसमस का पेड़
नन्ही नन्ही कई कोमल आँखें जागती हुई
मनचाहे सुंदर सपनों के पीछे भागती हुई
शायद आँखों में तैरते उन अदृश्य अक्षरों को पढ़
उन जैसी ही मन को बांधने वाली अद्भुत कहानी गढ़
जाने फिर अपनी कौन सी जरूरत घटा
नन्ही हथेलियों पर कुछ काजू किसमिस और पिस्ते के टुकड़े सजा
मंत्र फूंकर जाने कैसा बड़ा निराला जैसा तैसा
पापा ही बन जाया करते थे सांताक्लॉज हर बार
शायद देखने को हमारे चेहरों पर उनका त्योहार
कितनी आसानी से चली आती थी ना खुशियां हमारी बंद मुट्ठी में
और आज खुली विस्तृत बाहों में भी पूरा नहीं पड़ता ऐश्वर्य का सामान
फिर ये सोचकर बरबस ही आ जाती है होठों पर मुस्कान
मेरे पंख नहीं हैं तो क्या ? कल्पनाओं की तो तेज है उड़ान।
और मुट्ठी में है बंद एक टुकड़ा ख्वाबों का आसमान।
कोमल अग्रवाल की ओर से आप सभी को क्रिसमस की शुभकामनाएं।