*क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी श्री राम अवतार दीक्षित*
क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी श्री राम अवतार दीक्षित
(सुपुत्री श्रीमती निशि पूठिया से भेंटवार्ता दिनांक 12 सितंबर 2022 पर आधारित लेख)
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अधिकांश स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अब इस संसार में नहीं रहे, लेकिन उनके वंशज उनकी क्रांतिकारी एवं प्रेरणादायक स्मृतियों को अभी भी हृदय में संजोए हुए हैं । उनके नेत्रों में अपने पूर्वजों के महान त्याग और बलिदान की गाथाऍं अमिट रूप से अंकित हैं । ऐसे ही एक अविस्मरणीय क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री राम अवतार दीक्षित हैं ।
आपका मुरादाबाद के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में नाम अंकित है । आपकी सुपुत्री श्रीमती निशि पूठिया को आपके देशभक्ति से भरे भावों और क्रियाकलापों का स्मरण सदैव बना रहता है । स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पुत्री होने के नाते राष्ट्र के प्रति आप में कर्तव्य-बोध बराबर जागृत है । देश के प्रति एक नागरिक के नाते हमारे क्या कर्तव्य हैं, आपको भली-भांति ज्ञात है । स्वतंत्रता कितनी मूल्यवान है तथा उसे आपके पूर्वजों ने कितनी तपस्या से प्राप्त किया, इसके महत्व को भी आप भली-भॉंति समझती हैं ।
23 दिसंबर 2006 को श्री राम अवतार दीक्षित का मुरादाबाद में निधन हो गया, लेकिन बरेली निवासी उनकी सुपुत्री श्रीमती निशि पूठिया अपने पिता के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को अभी भी इस प्रकार याद करती हैं मानो वह कल की-सी बात हो । पिता की अतीत की स्मृतियों का चित्र खींचते हुए उन्होंने बताया कि उस समय अंग्रेजों का शासन था । एक अंग्रेज अधिकारी से सड़क पर जुलूस निकालते समय रामअवतार दीक्षित जी भिड़ गए। गर्मा-गर्मी हुई और रामअवतार दीक्षित जी ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी को थप्पड़ रसीद कर दिया । उस जमाने में यह बड़ी बात थी । ऐसा दुस्साहस कोई भारतीय किसी अंग्रेज के साथ करे, ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । प्रारंभ में तो अंग्रेज अधिकारी हक्का-बक्का रह गया। यह अपमान उसकी दृष्टि में बहुत बड़ा था । फिर वह आग-बबूला हो गया । उसका क्रोध चरम सीमा पर पहुॅंचा हुआ था । सारी पुलिस उसके साथ थी और सबके सामने उसके गाल पर एक भारतीय क्रांतिकारी थप्पड़ मार दे, यह अंग्रेज हुकूमत को दी गई एक खुली चुनौती थी । अंग्रेज अफसर रामअवतार दीक्षित को पकड़ने के लिए दौड़ा । राम अवतार दीक्षित सड़क पर लगे हुए एक खंभे पर चढ़ गए । नीचे अंग्रेज पुलिस अधिकारी था, जो अपने दॉंत पीस रहा था । जब उसकी समझ में कुछ नहीं आया, तब उसने रामावतार दीक्षित पर अपने अपमान का बदला लेने के लिए गोली चलाने का निश्चय किया। बंदूक निकाल ली और गोली चलाने के लिए तत्पर हो गया । बस न जाने कैसे ईश्वर ने अद्भुत खेल रच दिया । पुलिस विभाग के ही किसी भारतीय ने अंग्रेज अफसर को विनम्रता पूर्वक समझाया कि हत्या करने से माहौल बिगड़ जाएगा तथा रक्तपात से इस समय कोई लाभ नहीं पहुंचेगा । भगवान ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी को सद्बुद्धि दे दी और बंदूक से गोली चलाने की वह घड़ी टल गई ।
अपने दुस्साहस के कारण रामावतार दीक्षित को कई बार जेल की सजा हुई । निशि पूठिया ने बताया कि पिताजी किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे । अंग्रेजी राज उनकी ऑंखों में चुभता था। जब वह श्रीमती निशा पूठिया को उनकी ससुराल बरेली में छोड़ने के लिए जाते थे, तो रास्ते में बरेली जेल पड़ती थी । पिता रामावतार दीक्षित अपनी पुत्री निशि पूठिया को बताते थे “यह जो जेल है, इसमें बड़ी उम्र के लोग कैद में रखे जाते हैं । इसके अलावा बरेली में एक ‘बच्चा-जेल’ भी है, उसमें बच्चों को रखा जाता है । हमें आजादी से पहले इसी जेल में स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी के अपराध में कैदी के रूप में रखा गया था ।” सुनकर निशि पूठिया की ऑंखों में पानी छलक आता था और वह सोचती रह जाती थीं कि पिताजी को किशोरावस्था में जेल-जीवन की यात्रा ईश्वर ने क्यों लिख दी ? वह आयु जब बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, अपने सहपाठियों के साथ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाऍं करते हैं, तब देश की स्वतंत्रता का बीड़ा उठाने का कार्य पिताजी ने कैसे कर लिया और उसके लिए बच्चा-जेल में उन्हें सजा तक भोगनी पड़ी ! वह पिताजी से उनके स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी के कारण जो कष्ट सहन करने वाले कार्य थे, उसकी बातें करती थीं।
पूछने पर पिता राम अवतार दीक्षित बताते थे कि अंग्रेजों का जुल्म हम भारतीयों के ऊपर बहुत ज्यादा था । विशेष रुप से अगर किसी के स्वभाव में क्रांतिवादिता है तब तो अंग्रेज उसके ऊपर आग-बबूला होकर अत्याचार करने से नहीं चूकते थे। सचमुच ऐसा ही भयभीत करने वाला दृश्य रामअवतार दीक्षित जी ने कभी अपनी सुपुत्री निशि पुठिया को बताया था कि तेल में भीगा हुआ बेंत वाला कोड़ा जेल में रहता था और हमें आठ या दस कोड़ों की सजा मिली थी । यह कोड़ा बड़ा भयंकर होता था । इसे अंग्रेज लोग तेल में से उठाकर और फिर दूर से हमारे शरीर पर पूरी ताकत से फेंकते थे । न जाने कोड़ा किस प्रकार का बना होता था कि हमारे शरीर पर आते ही चिपक जाता था । उस के शरीर से चिपकने पर अपार कष्ट होता था, जिसे सहन करना बड़ा कठिन हो जाता था । लेकिन जितना कष्ट कोड़े के शरीर से चिपटने पर होता था, उससे कई गुना ज्यादा कष्ट उस समय होता था जब अंग्रेज उस कोड़े को हमारे शरीर से बेदर्दी के साथ खींचते थे। खाल उधड़ जाती थी और उस उधड़ी हुई खाल पर घाव के निशान सारा जीवन बने रहते थे। निशि पूठिया ने अपने पिता के शरीर पर घाव के निशान देखे थे और उनके स्मरण-मात्र से वह आज भी सिहर उठती हैं । हे भगवान ! कितनी दरिंदगी के साथ पिताजी को अंग्रेजों ने कष्ट दिए ! कोड़े मारने की सजा इतनी भयंकर थी कि जितने कोड़े मारने की सजा मिली थी, उससे दो कोड़े पहले ही पिताजी बेहोश हो गए थे और तब अंग्रेजों ने जब यह समझा कि अगर बेहोशी की हालत में हमने इन्हें कोड़े और मारे, तब यह जीवित नहीं बचेंगे तथा मामला बिगड़ जाएगा । ऐसी कष्टपूर्ण जिंदगी को खुशी-खुशी आत्मसात करने की दृढ़ इच्छाशक्ति रखने वाले राम अवतार दीक्षित को विपरीत परिस्थितियॉं कभी भी स्वतंत्रता के पथ से विचलित नहीं कर सकीं।
जेल जीवन में अनेक प्रकार की घटनाऍं रामअवतार दीक्षित जी के सामने आईं। निशि पूठिया अपने पिता से उन दिनों की चर्चाएं करती रहती थीं। पिता जी को जेल में कृष्णा-मिक्स्चर जैसा-कुछ बनाने का कार्य सौंपा गया था, अर्थात इस कार्य में उनकी सहभागिता रहती थी । जितने लोग जेल जाते थे, वह सब सुशिक्षित नहीं होते थे । पिताजी में शिक्षा के साथ-साथ सामान्य समझ भी थी। रामावतार दीक्षित जी सुसंस्कृत व्यक्तित्व थे । उनका हिंदी और अंग्रेजी का ज्ञान भी अच्छा था । उन्हें शिक्षित व्यक्ति के अनुरूप कृष्णा मिक्स्चर बनाने का कार्य जेल प्रशासन ने सौंपा था । यह तो केवल ऊपरी न्यायप्रियता थी, जो दिखावे के लिए ही होती थी । अन्यथा तो वह अपनी निर्दयता में कोई कसर नहीं छोड़ते थे । भोजन में कंकड़, पत्थर और रेत-मिट्टी का मिश्रण एक सामान्य बात थी । अनेक बार पिताजी को लगता था कि यह भोजन खाने योग्य नहीं है । वह कई बार भोजन खाने से मना कर देते थे, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों के कान में जूॅं नहीं देखती थी । विवश होकर उसी खराब भोजन को खाना पड़ता था। पेट खराब हो जाता था। आंतों में घाव हो जाते थे । स्थाई रूप से स्वास्थ्य को हानि पहुॅंचती थी ।
पिताजी का तेवर क्रांतिकारी था । जेल में भी वह सत्यप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे । अंग्रेजों से खरी-खरी कहने में नहीं चूकते थे। परिणाम यह होता था कि पीने का पानी जो कि हर व्यक्ति का मूलभूत अधिकार है, उससे भी पिताजी को वंचित कर दिया जाता था । उन्हें पीने का पानी देने के स्थान पर उनकी ऑंखों के सामने पानी से भरा घड़ा अंग्रेज अधिकारी जमीन पर पटक कर छोड़ देते थे । पानी बह जाता था और क्रांतिकारी प्यास से तड़पते रह जाते थे । यह सब नियमों के विरुद्ध जाकर तथा जिस न्यायप्रियता की बड़े जोर-शोर से अंग्रेज अपनी डींग हॉंकते थे, उसका एक प्रकार से उपहास ही था ।
एक बार की बात है, जब रामअवतार दीक्षित जी ने जेल में खराब खाने के विरुद्ध आवाज उठाई । उनका साथ देने के लिए अन्य स्वतंत्रता सेनानी भी एकजुट हो गए । एलमुनियम की परात और कटोरी जब भोजन करने के लिए दीक्षित जी और अन्य सेनानियों को मिली, तब उन्होंने विरोध स्वरूप एक हाथ से कटोरी लेकर दूसरे हाथ में परात को थाम कर बजाना शुरू कर दिया । पूरी जेल उस सिंहनाद से गूॅंज उठी। जेल प्रशासन को इस मामले में झुकना पड़ा । तत्काल स्वतंत्रता सेनानी कैदियों को चने दिए गए। इस तरह प्रकरण में सत्य की जीत हुई । हालाॅंकि यह कभी-कभार दूज की चॉंद की तरह सत्यवादिता के विजय के दर्शन होते थे अन्यथा तो अंग्रेजी राज में सिवाय कठोरता के सेनानियों के हाथ में कुछ नहीं आता था।
स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी करते हुए रामअवतार दीक्षित जी का घर अंग्रेजों ने कुर्क कर दिया । यह कुर्की बड़ी भयंकर थी । जब घर का सारा सामान उस कुर्की में ले गए, तब भी अंग्रेजों का दिल नहीं पसीजा। अचानक उनकी निगाह घर की छत पर लगी हुई लकड़ी की कड़ियों पर गई । उन कड़ियों के सहारे छत टिकी हुई होती है। लेकिन फिर भी उन्होंने उन कड़ियों को मूल्यवान समझते हुए उन्हें छत से तोड़ कर अलग कर दिया और लकड़ी की वह कड़ियें तक ले गए । यह किसी व्यक्ति को भीतर से तोड़ने के लिए पर्याप्त कार्यवाही मानी जानी चाहिए। लेकिन रामअवतार दीक्षित जी ने कभी पराजित होना स्वीकार नहीं किया था । उन्होंने न अंग्रेजों से माफी मॉंगी और न घुटने टेके । देश की स्वतंत्रता का जो व्रत उन्होंने धारण किया हुआ था,वह जारी रहा । इस कार्य में उनके पिताजी की दृढ़ता भी बहुत काम है।
श्रीमती निशि पूठिया बताती हैं कि उनके दादाजी अर्थात रामअवतार दीक्षित जी के पिताजी का नाम बूलचंद था । मृत्यु 1960 के लगभग हुई होगी । उनके भीतर भी स्वतंत्रता आंदोलन की आग थी । जब यह प्रश्न आया कि रामअवतार दीक्षित माफी मॉंग कर सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं, तो बूलचंद जी ने अपने बेटे को संदेश भेज दिया कि चाहे जो हो जाए, माफी मत मॉंगना । परिणाम यह निकला कि पुत्र का क्रांतिकारी व्यक्तित्व प्रोत्साहन पाकर और भी निखर गया । स्वतंत्रता के पथ पर उनकी यात्रा और भी बलवती हो गई ।
आजादी के बाद की दो घटनाऍं अपने पिता के संबंध में निशि पूठिया को आज भी याद आती हैं । एक घटना जवाहरलाल नेहरू के निधन के समाचार की थी । उस समय निशि पूठिया मुश्किल से पॉंच-छह साल की रही होंगी, लेकिन अपने पिता की ऑंखों में ऑंसुओं को उन्होंने ऐसा पढ़ा कि उसकी लिखावट कभी नहीं भूलीं। समाचार सुनते ही रामअवतार दीक्षित ने अपनी साइकिल उठाई थी और दिल्ली जाने के लिए बस पकड़ ली । नेहरू जी के अंतिम दर्शन करके ही फिर वह दिल्ली से वापस आए।
दूसरी घटना बहुत बात की है, जब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गॉंधी के हाथ से उन्हें दिल्ली में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ताम्रपत्र मिला था । कागज में लपेट कर पिताजी वह ताम्रपत्र लाए थे। उसमें स्टैंड लगा हुआ था तथा सुविधा के अनुसार उसे कहीं रखा जा सकता था । पिताजी ने हम से कहा “यह कोई मामूली चीज नहीं है । बहुत बड़ी मूल्यवान वस्तु है। सारे जीवन हमने जिस आदर्श की उपासना की है, यह उसकी परिणति है ।” निशि पूठिया ने ताम्रपत्र को गौर से देखा था और पढ़ा था कि उस पर पिता रामअवतार दीक्षित का नाम अंकित है । उम्र ज्यादा नहीं थी लेकिन निशि पूठिया को पहली बार एक बहुमूल्य संपदा घर में आती हुई महसूस हुई । गर्व की अनुभूति हुई । आखिर यह उनके पिता के किशोरावस्था से किए गए भारी तप का परिणाम जो था।
आजादी मिलने के बाद भी रामअवतार दीक्षित जी राष्ट्र-सेवा के कार्य में लगे रहे । वह सच्चाई पर आधारित किसी भी व्यक्ति के शोषण और उत्पीड़न के प्रकरण को बड़े से बड़े अधिकारी के पास लेकर जाने में नहीं हिचकते थे । वह अधिकारपूर्वक अपनी बात कहते थे । इसके पीछे उनका यह बोध रहता था कि यह हमारा देश है, जिसे हमने संघर्ष के बाद स्वतंत्र कराया है तथा इसमें अब किसी भी प्रकार का शोषण, उत्पीड़न अथवा असत्य का दबाव स्वीकार नहीं किया जा सकता । अधिकारी उनकी सत्य-प्रियता और निर्भीकता का आदर करते थे तथा प्रकरण में रामावतार दीक्षित जी को सफलता अवश्य प्राप्त होती थी।
रामअवतार दीक्षित जी को अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था । इन दोनों ही भाषाओं में पत्र-लेखन में वह निपुण थे । उनकी हस्तलिपि बहुत अच्छी थी । निशि पूठिया जी को जब अपने पिताजी की हस्तलिपि याद आती है तब वह उसकी तुलना टाइप किए हुए शब्दों से करती हैं और कहती हैं कि उन जैसा साफ-सुथरा लिखने वाला व्यक्ति शायद ही कोई हो।
रामअवतार दीक्षित जी की सुरुचिपूर्ण आदतों का भी प्रेरणादायक स्मरण निशि पूठिया को आता है । अखबार पढ़ना पिताजी का स्वभाव था, लेकिन अखबार पढ़ने के बाद उसे निपुणता के साथ तह करके एक के ऊपर एक इस प्रकार रख देना कि मानो यह अभी प्रेस से छप कर आए हों, यह तो पिताजी की ही विशेषता थी । व्यवस्थित जीवन जीने के वह समर्थक थे। एक प्रकार से अनुशासन-प्रियता उनके जीवन में बस गई थी । हर चीज अपने स्थान पर सुरुचिपूर्ण ढंग से रखी हुई होनी चाहिए । अगर हम बच्चे कोई चीज इधर से उधर अथवा बेतरतीब तरीके से डाल देते थे, तो वह हमें दृढ़ता-पूर्वक समझाते थे और जीवन में अनुशासन के महत्व को बताते थे ।
सुबह पॉंच बजे पिताजी उठ जाते थे । वह हमें बताते थे कि जीवन में जो कुछ भी कमाओ, उसमें ईमानदारी का हमेशा ध्यान रखो । बेईमानी की कमाई, याद रखो, स्वयं तो जाती ही है अपने साथ उससे ज्यादा धन-संपत्ति लेकर चली जाती है। जबकि ईमानदारी से अर्जित जो भी धन-संपत्ति होगी, वह जीवन को संतोष और तेजस्विता से भर देगी । ईमानदारी एक ऐसा गुण है जो तुम्हें सारा जीवन शांति और आंतरिक सुख प्रदान करेंगे ।कभी जीवन में मलिनता नहीं आएगी। किसी के सामने सिर झुकाने की स्थिति पैदा नहीं होगी । अगर तुम ने ईमानदारी की कमाई को जीवन का मूल मंत्र मानकर आत्मसात कर लिया, तो सदैव सिर गर्व से उठाकर चलोगे ।
रामावतार दीक्षित जी की केवल कठोर छवि ही नहीं थी, उनके भीतर विनोद-प्रियता भी थी। कई बार वह प्रसंगवश अपनी हॅंसी-मजाक की प्रवृत्ति के दर्शन भी करा देते थे । निशि पूठिया जी बताती हैं कि उनकी माता जी का नाम मायादेवी था । जब एक बार यह प्रसंग चल रहा था कि इस संसार में जो भी धन-संपत्ति है, वह सब माया है और माया भगवान की ही संपत्ति है, तब पिताजी रामअवतार दीक्षित ने मुस्कुराते हुए कहा -“माया तो मेरी है, माया भगवान की नहीं है।” सुनकर सब निश्छल हॅंसी से सराबोर हो गए थे । वास्तव में दरअसल रामअवतार दीक्षित जी की पत्नी का नाम माया देवी था और उन्होंने इसी कारण यह हास्य का प्रसंग पारिवारिक वार्तालाप में उपस्थित कर दिया ।
शिक्षा के महत्व को रामअवतार दीक्षित जी ने भली-भॉंति समझा था । इसी कारण उन्होंने अपनी पत्नी माया देवी को विवाह के उपरांत हाई स्कूल से लेकर हिंदी और संस्कृत में डबल एम.ए. कराने तक का कार्य संपादित किया । उन्हीं के प्रोत्साहन से उनकी पत्नी माया देवी राजकीय कन्या इंटर कॉलेज, पौड़ी गढ़वाल,तदुपरांत संभल, मुरादाबाद, अमरोहा स्थानों पर शिक्षक और प्रवक्ता के रूप में कार्य कर सकीं ।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को पेंशन मिलने का कार्य आसान नहीं था । ज्यादातर के पास कोई रिकॉर्ड नहीं था जबकि जेल-प्रशासन से रिकार्ड निकलवाने के लिए तिथिवार विवरण की आवश्यकता होती थी। राम अवतार दीक्षित जी न केवल अपनी जेल-यात्रा का विवरण याद रखते थे, बल्कि अपने सहयात्रियों के बारे में भी उन्हें अच्छी जानकारियॉं रहती थीं। कागज पर भी वह महत्वपूर्ण घटनाओं का ब्यौरा लिखकर रख लेते थे । उनकी इस पढ़ाई-लिखाई की प्रवृत्ति का लाभ कई स्वतंत्रता सेनानियों को मिला । रामअवतार दीक्षित जी ने जेल में जाकर उनका पुराना रिकॉर्ड निकलवाया । इसमें कठिनाई तो आई, लेकिन कार्य में सफलता मिली और स्वतंत्रता सेनानियों को न केवल आर्थिक लाभ पहुंचा अपितु रिकॉर्ड में भी उनका नाम चढ़ पाया । यद्यपि कुछ मामलों में सफलता नहीं मिल पाई थी । निशि पूठिया जी बताती हैं कि उनके पिताजी ने एक महिला और एक पुरुष स्वतंत्रता सेनानी को पेंशन दिलाने के लिए काफी खोजबीन की, लेकिन दुर्भाग्य से उनका रिकॉर्ड नहीं निकल पाया । बिना रिकॉर्ड के स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सरकार उन्हें कैसे घोषित करें ? रामअवतार दीक्षित जी गवाह थे उन तमाम लोगों के जिन्होंने उनके साथ जेल की यात्रा की थी और स्वतंत्रता के लिए त्याग और बलिदान दिए थे । इतिहास उनकी आंखों के सामने था । वह चाहते थे कि सभी स्वतंत्रता सेनानियों को देश में पर्याप्त सम्मान मिले और उन्हें पेंशन देकर कम से कम ‘देर आए दुरुस्त आए’ वाली स्थिति का निर्वहन तो हो ही जाए। इस कार्य में जब भी उन्हें सफलता मिलती थी, तब उनको परम संतोष का अनुभव होता था ।
श्रीमती निशि पूठिया छह भाई-बहन हैं अर्थात दो बहनें तथा चार भाई हैं । सब भाई-बहनों में पिता रामअवतार दीक्षित के महान संस्कार कूट-कूट कर भरे हैं। एक घटना निशि पूठिया को याद आती है, जब उनके छोटे भाई धवल दीक्षित उनके पास मिलने के लिए बरेली आए थे । जाड़ों का समय था, लेकिन धवल दीक्षित के शरीर पर कोई भी गर्म वस्त्र नहीं था। बहन आश्चर्यचकित हो गईं और पूछने लगीं कि गर्म कपड़ों का क्या हुआ ? तब धवल दीक्षित ने बताया कि मैं गर्म कपड़े पहने हुए तो था, लेकिन बरेली में आने के बाद रास्ते में एक व्यक्ति को ठंड से ठिठुरते हुए जब देखा तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपने गर्म कपड़े उसे दे दिए । सुनकर निशि पूठिया को अपने पिता की क्रांतिवादिता और सदाशयता के पथ पर चलने वाले छोटे भाई पर बहुत गर्व हुआ । बाद में उन्होंने हालॉंकि धवल दीक्षित को संसार के उतार-चढ़ाव के बारे में भी समझाया।
श्रीमती निशि पूठिया का जन्म 20 जनवरी 1958 को हुआ। 7 मई 1981 को उनका विवाह बरेली निवासी केनरा बैंक के सीनियर ऑफिसर श्री अशोक पूठिया के साथ हुआ । इसी के साथ ‘निशि दीक्षित’ अब ‘श्रीमती निशि पूठिया’ बन गईं। श्रीमती निशि पूठिया की एकमात्र संतान डॉक्टर हर्षिता पूठिया (डेंटल सर्जन) हैं। इन पंक्तियों के लेखक का यह बड़ा भारी सौभाग्य है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री रामावतार दीक्षित की सुपुत्री श्रीमती निशि पूठिया का संबंध ईश्वर ने ‘समधन’ के रूप में उसके साथ सुनिश्चित किया तथा डॉक्टर हर्षिता पूठिया का विवाह इन पंक्तियों के लेखक के पुत्र डेंटल सर्जन डॉक्टर रजत प्रकाश के साथ हुआ ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उ. प्र.)
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