क्रम में
मन शांत है
पर भाषा कुलबुलाती है
अपनी पहचान लिए
इतिहास बनाती है
रोज़ ख्वाब बुनते
शाम को ढ़ल जाती है
फिर कल भोर
नई स्वप्न सज कर आती है
मेले लगे हैं
विक्रेता हैं खरीदार नहीं
बाज़ार तो छांव देती
किन्तु, घर के दहलीज़ नहीं
हृदय मचल उठता
देह अब साथ नहीं देती
झुर्रियां निकल आई
धीरे – धीरे, शनै – शनै
बिछौने पर सो जाता हूँ
अपने कोई नहीं होते हैं
अभी बुझा हुआ, ठहरा
द्युति में कांति ले आता हूँ
बिखर जाऊंगा समुद्र सी
ज्वार – भाटे ले खड़ा हूँ
ताज पहनेंगे हम भी कभी
अभी पार होने के क्रम में हूँ
धुरी पे मेरे चतुष्चद्र लगेंगे
नभ से मेघ लोकने को है
धर नीर के अधर में लिप्त
नई नवेली डोली में बैठी है।