क्यों मूँछों पर ताव परिंदे.!
क्यों मूँछों पर ताव परिंदे.!
दो कौड़ी का भाव परिंदे..!
राज़ खुले जब हाकिम के तो,
मार पड़ी बेभाव परिंदे..!
था अंधों में काना राजा,
ले डूबा वो नाव परिंदे.!
वक़्त बुरा जब होता है तो,
उल्टे पड़ते दांव परिंदे.!
मन पर गर्द न जमने पाये,
करता रह छिड़काव परिंदे..!
ख़त्म हुई जब तू तू- मैं मैं,
फिर चालू पथराव परिंदे.!
नाच न जाने आंगन टेढ़ा,
बन बैठा है राव, परिंदे.!
दूर फ़लक पर घर हो अपना,
कैसा है यह चाव परिंदे.!
देख नमक है हर मुट्ठी में,
ढक ले अपने घाव परिंदे.!
पंकज शर्मा “परिंदा”