क्यों न करती मैं जीवन अर्पण
क्यों न करती मैं जीवन अर्पण
(Why shouldn’t I devote my life)
भर लो अपने अंक में ,
उतर जाओ प्राण में भी,
तुम ही मेरी स्वांस हो,
तुम ही जीवन आधार प्रियतम।
मेरे दृग निर्झर से बहते,
कातर स्वर में विनती करते,
ईश नहीं क्या रचा है तूने,
इस वर्षा का कोई गेह घन।
शून्य में मैं ताकती थी,
शायद तुमको खोजती थी,
पूछती थी आद्र चितवन,
हो कहाँ तुम मेरे संगम।
सबने मुझको बहुत छला है,
कण-कण में मुझको तोड़ा है,
तुमने आकर मुझे समेटा,
ऋणी रहेगा मेरा ये मन।
अम्बर में जैसे सूर्य है जलता ,
वैसे मेरा हृदय था तपता,
तुमने आकर सिंधु उलीचा,
क्यों न करती मैं जीवन अर्पण।
वर्षा श्रीवास्तव”अनीद्या”
मुरैना”मध्यप्रदेश”