क्या -दीया जलाना मना है
क्या_दीया_जलाना_मना_है
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आगे सघन घना अँधेरा है
कुछ सूझ नहीं रहा है -अब,
साया भी समा रहा अपने में,
मन भी डूब रहा है अब इस
सघन घने अँधेरे में,
क्या, दीया जलाना मना है?
तारे जो चमक रहे थे ,कल तक
बिखर रही थी धवल चाँदनी,
जाने वो सब कहाँ खो गये
इस सघन घने अँधेरे में,
क्या, दीया जलाना मना है?
जलते दीपक की ज्योति से,
दूर भागता तम भी उससे,
होने को विलीन तिमिर में,
और दिखाता राह सदा,
भटके हुए राही को,
इस गहन अँधेरे से,
अब भी,
क्या, दीया जलाना मना है?
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना
16-02-2024