क्या ज़रूरत थी
थी तेरी हसरत
उसे अपना बनाने की
क्या ज़रूरत थी
ये बात ज़माने को बताने की
चाहत थी तेरी
ज़िंदगी संग उसके बिताने की
क्या ज़रूरत थी
ये बात तुम्हें सबको बताने की
सिर्फ वो तेरी नहीं
सबके लबों पर है अब वही
क्या ज़रूरत थी
महफिल में गज़ल सुनाने की
आदत है जिनकी
शीशे के महलों में रहने की
क्या ज़रूरत थी
उन्हें आईना दिखाने की
भीगी हुई थी वो
बरसात अपने शबाब पर थी
क्या ज़रूरत थी
उसे आज फिर रुलाने की
प्रचार से कुछ नहीं होता
कहते हो, किरदार में दम होना चाहिए
फिर क्या ज़रूरत थी
जगह जगह ये इश्तिहार लगाने की।