क्या चाहिए….
ये चाहिए वो भी चाहिए
कभी न सोचा क्या चाहिए
मन के घट को ख़ूब खंगाला
तब पाया मुझे क्या चाहिए
पेड़ों की मौन क़तार नही
फूलों सा खिलखिलाना चाहिए
ठहरा गहरा शांत समुद्र नही
चंचल मनमौजी नदी चाहिए
नभ चूमते पथरीले पर्वत नही
भू फैली दूर्वा नरमाई चाहिए
टूटते सितारों की रात नही
जुगनुओं की बारात चाहिए
मलय पवन का झोंका नही
दिल में उठता तूफ़ान चाहिए
दीप का टिम टिम प्रकाश नही
सूरज सा प्रखर तेज चाहिए
मुट्ठी भर आसमान नही
आकाश भर ख़ुशियाँ चाहिए
जमीं का एक टुकड़ा नही
धरा भर सम्मान चाहिए
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया