क्या कलिकाल श्रीकृष्ण को वध लेगा
छटपटाती कलपती
जागृतियाँ हमारी.
वैचारिक धरातल पर
जलती भुनती खुशियाँ हमारी
और अखण्ड साधनाएं।
न जाने किस उपलब्धि हेतु
हमने रास्ते बदल लिए हैं
कौन से समंदर के बैर में हम
गंगोत्री अपवित्र कर रहे हैं
चिंगारियों से खेलकर
ज्वालाऐं भड़काते हैं
अपने रुख की तलाश में
सारी भीड़ बिखरा जाते हैं
चिन्ता ही चिन्ता है।
क्या दधीचि की अस्थियां,
श्मसान का प्रतीक बन गई
क्या रावण पर शिवत्व,
राम का वध कर लेगा
क्या कलिकाल में महाभारत,
श्रीकृष्ण को मार डालेगा।
प्रौढ़ हो आया है हमारा बचपन,
चर्महीन हो चुकी है हमारी ताकत
यह कल्पवृक्ष ग्रीष्म को पनपने नहीं देता,
आग पनपती पत्तियाँ कहाँ से उग आती हैं।
कौन बहता है इन शिराओं के भीतर,
कौन तृण-तृण को विवेक देता है
कौन शांति के सागर में छलांगता,
नियति के गहन सागर में डूबता नहीं।
व्यवधान करो अपनी तृप्ति में,
इस तंन्द्रा को तोड़कर
अपने सेज की चादर तो देखो
चाहरदीवारी से बाहर झांको
देखो क्या होता है सड़क पर,
क्या होता है महलों में
क्या हो रहा है पहलुओं में
व्यस्त इन गलियों, बस्तियों में
कितने सच विकृत हो चुके हैं
कितने अश्रु दम तोड़ चुके हैं
रास्ते कई मुसाफिरों के रोके हुए,
पंखहीन परिन्दे उड़े जा रहे हैं
और सशक्त कंठ कुचले जा रहे हैं।
यथार्थ पलायन कर रहा है,
और शिकारी ओट में,
खून के निशान मिटा रहे हैं
अभिनय ही अभिनय,
जिसका अस्तित्व रह गया
कल्पना करो,
उस भीड़ का क्या हश्र होगा।
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-✍श्रीधर.