क्या करूं
क्या करूं
अफसोस कितना हो रहा है।
जिन्दगी के शांत पथ पर
नेह का उत्पात
सर्प बनकर
डस रहा है
बिष का मीठा जहर
तन की
सारी नाड़ियों में बह रहा है।
मौन का बिष
भृमित मन की बेदना
उर में सन्देहों का बसेरा
अधर हैं पर मौन
नेत्र हैं पर दृष्टि धुंधली
मित्र है पर
शत्रु बनकर
मुख फिराकर
क्रोध के अंगार
मुझ पर छोड़ता है।
इसलिए
स्नेह रण से भागकर
भीष्म के सम
मृत्यु शैय्या
सो रहा है
करुण है
पर बिबशता से
शान्त होकर रो रहा है।
रचयिता
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार