क्या आज भी पुस्तकें हमारी मित्र हैं? ?
“किताबी कीड़ा ”
जी हाँ बचपन में मुझे मेरी बहनें और सहेलियाँ इसी नाम से पुकारा करती थीं। मेरा ही नहीं हमारी आयु वर्ग के सभी लोग उन दिनों पुस्तकों के अभ्यस्त या यूँ कहें कि एडिक्ट हुआ करते थे। और हों भी क्यों न उन दिनों पुस्तकें ही हमारे ज्ञान वर्धन व मनोरंजन का एकमात्र साधन थीं। पुस्तकों के द्वारा हमारा आयुअनुरुप क्रमिक और व्यवस्थित ज्ञान वर्धन होता था। जिस उम्र में जितना ज्ञान आवश्यक है उतना ही। न उसे ज्यादा न कम।
हमारे समय में अर्थात् सत्तर के दशक तक पुस्तकों से लगाव और पुस्तकें पठन पाठन लोगों का सर्व प्रिय शौक हुआ करता था। अधिकांश धनाढ्यों के घरों में स्वयं के पुस्तकालय हुआ करते थे। यह बड़ी शान शौकत व उच्च शिक्षित लोगों की परिचायक मानी जाती थी।
उपन्यास पढ़ने का शौक सर्वाधिक लोगों के सर चढ़ कर बोलता था। शरतचन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ रेणु, कमलेश्वर, भीष्म साहनी ऐसे अनगिनत उपन्यासकार जनता के चहेते बने हुए थे। अस्सी के दशक में दूर दर्शन का आगमन हुआ और नब्बे के दशक के आते आते सोशल मीडिया में मोबाइल के प्रवेश के पश्चात तो पुस्तकों व पुस्तकालयों, सार्वजनिक वाचनालयों की जैसे छुट्टी कर दी। पुस्तकें तो जैसे धूल खाने लगीं।
क्या सोशल मीडिया आज जन-जन में पुस्तकों की कमी पूरी कर सकते हैं???कतई नहीं। यह अवश्य है कि आज सोशल मीडिया के इस साधन ने आपको हर विषय पर असंख्य सामग्री परोसी है किन्तु कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि एक ही विषय पर भिन्न – भिन्न विचार व विपरीत नतीजे मिलते हैं। उस समय बड़ी ऊहापोह वाली स्थिति बन पड़ती है कि किसे प्रामाणिक व सत्य माना जाए। साथ ही हमारे किशोर वय तक के बालकों को मीडिया के द्वारा कई बार आयु सीमा से बढ़कर अनावश्यक ज्ञान मिलने लगता है जो उनके भावी जीवन के लिए उचित नहीं। यह पुस्तकों से मिलना संभव नहीं था।
खैर कुछ भी कहिए किताबें पढ़ने का चस्का व किताबें पढ़ने के शौक का मज़ा ही कुछ और है वो आज की नयी पीढ़ी क्या जाने।
रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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