कौन मनाएगा तुमको
यहां कौन मनाएगा तुमको
कि तुम ऐसे रुठे रहते हो
कोई क्या उसे सुनता भी है
जो कुछ भी तुम कहते हो…
(२)
क्या तुम्हारा ज़मीर मर गया
या तुम्हारी गैरत मिट गई
इतनी ज़लालत और फ़ज़ीहत
आख़िर किस लिए सहते हो…
(३)
भला प्यार और गुलामी में
कोई फ़र्क होता है कि नहीं
वही मारता है लात तुम्हें
जिसके पैरों में ढहते हो…
(४)
क्या तुम हालात के दरिया में
चुपचाप ग़र्क हो जाओगे
वक़्त की धारा में क्यों एक
लाश की तरह बहते हो…
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Shekhar Chandra Mitra
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