कौन उठाए आवाज, आखिर इस युद्ध तंत्र के खिलाफ?
मनुष्य और पशु में अनेक अंतर हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी है कि जानवर अपने समाज के समग्र कल्याण के बारे में सोच नहीं सकता, जबकि मानव न केवल सोच सकता हैं अपितु और इस सोच की दिशा में कार्य भी कर सकता है।
जबकि पशु का जीवन उसकी पशु वृत्ति से हीं संचालित होता है। इस सृष्टि में जो अपने को सबसे योग्य साबित कर पाता है , वो हीं जीने के योग्य माना जाता है । इन परिस्थितियों में पशु वृत्ति एक पशु के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण कड़ी भी साबित होती है।
लेकिन इसका दूसरा पहलु ये भी है कि अपनी इसी सोच के कारण एक जानवर संतानोत्तपत्ति और क्षुधा के अलावा कुछ और सोच नहीं सकता । संतान उत्त्पन्न करना, खाना के मारना और खाने के लिए मर जाना, यही मुख्य केंद्र बिंदु होता है जानवर के जीवन का।
जबकि ज्यादा से ज्यादा लोगो के जीवन बनाने की सोंच ने मानव को बेहतर से बेहतर व्यवस्था को अपनाने को मजबूर किया । मानव की इसी सोच ने उसे घुम्मकड़ और खानाबदोश जीवन शैली का त्याग कर सामंती सभ्यता को अपनाने के लिए प्रेरित किया।
सबकी भलाई ज्यादा से ज्यादा हो सके, अपनी इसी सोच के कारण मानव ने फिर सामंतवादी व्यवस्था के स्थान पर राजतंत्र को अपना लिया ताकि एक सुव्यवस्थित और सुनियांत्रित राजव्यस्था द्वारा ज्यादा से ज्यादा लोगों की सुरक्षा और ज्यादा से ज्यादा जनकल्याण हो सके।
जब राजशाही व्यवस्था व्यवस्था द्वारा सत्ता एक व्यक्ति के हाथों केन्द्रित हो गई और समग्र जनकल्याण के लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम ना हो सकी तब मानव ने राजशाही का त्याग कर लोकतांत्रिक व्यवथा का वरण कर लिया। वर्तमान समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था हीं विश्व के अधिकांश देशों में प्रचलित है।
इतिहास गवाह है, मानव ने न केवल समग्र जनकल्याण की परिकल्पना की अपितु एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए कड़ी मेहनत भी जो आम लोगों के कल्याण के लिए बेहतर विकल्प प्रदान कर सके। लोकतांत्रिक व्यव्यथा मानव के इसी सोच का परिणाम है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल में आम जनता का कल्याण हीं होता है । जनतंत्र के मुलभूत विचार को संयुक्त राज्य अमरीका के महान राष्ट्रपतियों में से एक राष्ट्रपति श्री अब्राहम लिंकन के शब्दों में संक्षेपित कर प्रस्तुत किया जा सकता है।
श्री अब्राहम लिंकन ने एक बार कहा था, “लोकतंत्र लोगों का, लोगों के लिए और लोगों द्वारा शासन है”। इसका तात्पर्य है कि लोकतंत्र सरकार वो एक प्रणाली है जिसमें आम जनता के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है।
आम आदमी अपने जन प्रतिनिधियों को इस उम्मीद के साथ वोट देते हैं कि वो आम आदमी की दशा और दिशा में सुधार के लिए उत्कृष्ट कानून बनाएंगे। एक आम आदमी में ये आशा होती है कि जन प्रतिनिधि ऐसे कार्य करेंगे ताकि इनकी स्थिति में सुधार हो। इसी सोच और इसी दृष्टिकोण के साथ ये जन प्रतिनिधि कार्य करेंगे, ऐसी उम्मीद होती है आम आदमी की ।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही हो रहा है ? देखने वाली बात ये है कि राजनैतिक पार्टियाँ और जनता द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधी जनता की उम्मीदों पर खड़े उतर रहे हैं या नहीं ? हाल फिलहाल की राजनैतिक घटनाएं कुछ और हीं संकेत कर रहीं हैं।
इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये अपेक्षा की जाती है की जन प्रतिनिधि अपने कामों को आधार बना कर हीं जनता का वोट मांगेंगे। परंतु हम जो देख रहे हैं, वह यह है कि इन राजनीतिक नेताओं और दलों को आम जनता के हितों की कोई परवाह नहीं है।
हाल फिलहाल में पश्चिम बंगाल , बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली इत्यादि राज्यों में जो भी राजनैतिक घटनाएं दृष्टिगोचित हो रहीं है , वो कुछ ऐसा हीं परिलक्षित कर रही हैं। एक बात तो स्पष्ट है केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का स्पष्ट आभाव दिख रहा है ।
पश्चिम बंगाल में चुनावों के बाद वृहद पैमाने पर भड़की हुई हिंसा, उत्तर प्रदेश में चुनावी रैलियों के दौरान जन प्रतिनिधियों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ अमर्यादित भाषा का उपयोग आखिर क्या साबित करता है?
कभी कभी तो लगता है कि ये राजनैतिक पार्टियाँ एक दुसरे की दुश्मन हैं । राजनैतिक मंचों पर गला फाड़ फाड़ के एक दुसरे के व्यक्तित्व का मजाक उड़ना , और इस प्रक्रिया में किसी भी हद तक चले जाना इन लोगो की फितरत बनती जा रही है ।
किसी एक राजनैतिक पार्टी को कटघरे में खड़ा करना अनुचित है। महाराष्ट्र में जिस तरह शिव सेना टूटकर भारतीय जनता से मिलकर सरकार बनाती है तो बिहार में बिल्कुल विपरीत घटना क्रम दिखाई पड़ता है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर भारतीय जनता पार्टी से अपना पल्ला झाड़कर आर. जे. डी. के साथ मिल जाते हैं तो सरकार के बदलने के साथ साथ हीं संजय राउत का जेल के अंदर जाना और दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर रेड पड़ना। अजीब तरह की राजनीति दिखाई पड़ रही है इस देश में।
ऐसा लगता है लोगों द्वारा चुने जाने के बाद, ये नेता अपने मिशन से बिल्कुल भटक जा रहे हैं । आज कल जब हम टी.वी. पर इन नेताओं द्वारा किए गए राजनीतिक डिबेट को देखते है तो हमें दिखाई पड़ता हीं क्या है, केवल अमर्यादित आरोपों और प्रत्यारोपों के सिवा।
तमाम नेता और राजनैतिक पार्टियां आपस में लड़ने और एक-दूसरे को बेवकूफ बनाने की होड़ में लगी हुई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन राजनेताओं का मुख्य लक्ष्य चुनाव जीतना हीं रह गया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि केंद्र और राज्य सरकारें एक दुसरे के साथ नहीं अपितु अपने अपने विकास करने के लिए उत्सुक है ।
राजनैतिक चुनाव और युद्ध में कोई अंतर दिखाई नही पड़ रहा है। कहते हैं कि युद्ध और प्रेम में सबकुछ जायज है। परंतु आज कल का जो राजनैतिक माहौल बन पड़ा है , ऐसा लगता है कि शायद अब ये कहना उचित होगा कि युद्ध, प्रेम, राजनीति और चुनाव में सबकुछ जायज है।
देश में राजनैतिक पार्टियों द्वारा सरकारी तंत्र जैसे कि सी . बी.आई. और ई. डी.का दुरुपयोग, जाति और धर्म के नाम पर हिंसा करने और जन प्रतिनिधियों द्वारा आम जनता में हिंसात्मक प्रवृत्ति को फ़ैलाने की कोशिश और क्या साबित करती है?
आम आदमी पार्टी का मुख्य मुद्दा आम आदमी का कल्याण ही रहा है। लेकिन जिस तरह शराब के दुकानों को धडदल्ले से शराब बेचने की छूट दिल्ली में दी जा रही थी उससे जनता का किस तरह से भला हो रहा था, ये बिल्कुल समझ से बाहर है।
अभी अभी 28 अगस्त को कोर्ट की ऑर्डर के तहत ट्विन टावर को ध्वस्त किया गया। कोर्ट के आर्डर के कारण भस्म हो गया भ्रष्टाचार का आलीशान भवन । लेकिन ट्विन टावर का ध्वस्त होना इस बात को फिर से साबित करता है कि भष्टाचार की जड़े हमारे जनतांत्रिक मूल्यों को बिल्कुल दीमक की तरह चाट रही हैं।
ये तो अच्छा है कोर्ट ने लोकतांत्रिक ताने बाने को बचाये रखने में अबतक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हैं । लेकिन महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या केवल कोर्ट की हीं जिम्मेवारी है कि वो लोकतांत्रिक मूल्यों को बचा कर रखे ?
फिर आम जनता द्वारा चुने हुए इन जन प्रतिनिधियों का क्या औचित्य ? क्या राजनैतिक पार्टियाँ और जन प्रतिनिधि निज स्वार्थ की पूर्ति हेतु हीं काम करते रहेंगे , जैसे कि आजकल के राजनैतिक परिदृश्य में दृष्टिगोचित हो रहा है ।
जनकल्याण की भावना का स्थान स्व पार्टी कल्याण ने ले लिया है और निहित स्वार्थ के लिए राजनैतिक पार्टियां और जनप्रतिनिधी किसी भी हद तक जाने को ऐसे तैयार बैठे हुए है, जैसे कि देश में जनतंत्र नहीं अपितु युद्धतंत्र हीं हैं।
यह देश में बहुत ही दुखद परन्तु सच्ची स्थिति है। ऐसा प्रतीत होता है कि शासन की वर्तमान शैली पूरी तरह से पशु प्रवृत्ति पर हावी है। जिस पशु प्रवृत्ति से आगे बढ़कर मानव ने बेहतर से बेहतर शासन प्रणाली को अपनाया , अब वो सारे के सारे मानवीय मूल्य धराशायी प्रतीत हो रहे हैं ।
केंद्र की सरकार हो या की राज्य की सरकारें, सारी की सारी सरकारें युद्ध की प्रवृत्ति से संचालित हो रही है। जिसको जहाँ मौका मिल रहा है , एक दुसरे को हानि पहुँचाने से चुक नहीं रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि शासन का मूल रूप अब लोकतंत्र के बजाय युद्धतंत्र है।
सवाल यह है कि शासन के इस मौजूदा स्वरूप से कैसे लड़ा जाए? इस प्रवृत्ति को मिटाने का लोकतांत्रिक तरीका क्या हो सकता है? आखिर कैसे इन राजनैतिक पार्टियों को जन प्रतिनिधियों को समझाया जाये जनतांत्रिक शासन व्यवस्था का आधार जनता का कल्याण है , ना कि खुद का कल्याण ।
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के मूल में जनता हीं होती है तो इस प्रश्न का जवाब जनता को हीं देना होगा। इस समस्या का समाधान भी आम जनता को हीं निकलना होगा ? लेकिन कब और कैसे , ये तो भविष्य हीं बता पायेगा। लेकिन हमारे पास इसका समाधान निकलने तक इंतजार करने के अलावा कोई और विकल्प बचा हीं क्या है?
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