असंपृक्तता
असंपृक्तता
कभी अस्पृश्यता बड़ी कोढ़ थी, कुछ हद तक वह आज भी है
आज भयंकर रोग इक दूजा, असंपृक्तता जो जग में छाई है।
किसी को मतलब नहीं किसी से, दिखे अपने में लीन सभी हैं
गांवों में कुछ अभी गनीमत, बिलगाव चरम शहरों में है।
परिवार और समाज दोनों में, हाल तो जैसे एक-सा है
मां-बाप पड़े एका अनबोले, परिवार समाज से कटा हुआ है।
मोबाइल है एक इजाद जादुई, वैश्विक देन विज्ञान की है
लाभ असीमित है तकनीकी, सामाजिकता बस कटी हुई है।
फोन पर बातें सब हो जातीं,चलचित्रक, चित्र, सब आ जाते
मेलजोल बस नाम मात्र का, दुआ सलाम अब आते -जाते।
शिक्षा दीक्षा या रोजी-रोटी का, रूप कुछ ऐसा बदल गया है
मातु-पिता तो कहीं पड़े हैं, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।
बच्चों को अब फुर्सत खुद से नहीं, मां बाप की कौन सुने ?
व्यस्त परिवार मोबाइल में है, संबंधों को अब कौन गुने ?
उम्मीदों के बने थे रिश्ते, अपने, बच्चों के, भाई- बहन के
मोबाइल की सब भेंट चढ़ गए, ‘नमस्ते’ में सब सिमट गए। असम्पृक्तता के असमतल कगार पर,जीना अब तो दूभर है
मनुष्य सामाजिक रहा है प्राणी, अब बिलगाव विवशता है।
दोष क्या विज्ञान को दें, सभ्यता ने अपनी सुविधा देखी है
तकनीकी जब भी उत्थान हुआ,संस्कृति सिकुड़ी-सिमटी है।
*******************************************************
—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।