कोई यहां अब कुछ नहीं किसी को बताता है,
कोई यहां अब कुछ नहीं किसी को बताता है,
शहर भी अब खुद को इस भीड़ से बचाता है।
रहते थे जो पंछी कभी उस दरख़्त की डाल पर,
अब शाम होते ही उस दरख़्त को तलाशता है।
अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है शाम से,
तो घरों सड़कों की लाईटें भी जल जाती है।
पर मन के अंधेरे को शायद ही कोई,
उम्मीदी के दीयों से मिटाता है।
खुद में क़ैद हुए यहां सबको ज़माना हो गया,
बेकसी की गुलामी से अब कौन ही बचाता है।
सालों साल कितने आते है और चले जाते है,
पर जो चला गया बमुश्किल ही वापस आता है।