कोई ठांव मुझको चाहिए
राह की दुश्वारियों को
पार करते थक गई हूँ
हो जहाँ कुछ शान्त मन
वो ठांव मुझको चाहिए ।
घात पर प्रतिघात सहते
हर एक शै को मात करते
मात खुद को कर गई हूं
जी सकूं जिनसे ये जीवन
वो दांव मुझको चाहिए ।
तपती रही सबकी तपन में
अब शेष न साहस बचा
तप्त होते तन व मन को
अब छांव ठण्डी चाहिए ।
भीड़ मे हूँ अजनबी
गुम हुई पहचान मेरी
जो मुझे पहचान ले
वो गाँव मुझको चाहिए ।
हर सान्ध्य का जब सूर्य है
इस सन्धि को क्यों शून्य है ?
सूर्य के प्राकट्य का ही
अब न्याय मुझको चाहिए ।