कैसे हो संस्कारों का हस्तांतरण??
हमें खूब अच्छी तरह से याद है कि मां हर बार होली या दीपावली आने के पांच या सात दिन पहले से ही पकवान बनाने का शगुन कर लेती थीं। पांच छै दिन तक रोजाना कुछ न कुछ जरूर बनाया जाता था। गुजिया, पापड़ी, मीठे नमकीन खुरमे, अनरसे,कई तरह के नमकीन सेव, दाल के छोटे समोसे, कांजी बड़े और न जाने क्या बनाया करती थीं वह भी कनस्तर और टंकियों में भर-भर कर।
हमें भी बेसब्री से इंतजार रहता था कि कब पूजन पूर्ण हो और हम टूट पड़ें पकवानों और माल पर।
होली पर्व पर खूब होली खेलते और दीपावली पर खूब पटाखे चलाते चाचा,ताऊ,बुआ के बच्चों के साथ और सहेलियों के साथ। और एक मजे की बात यह थी कि जिस किसी भाई बहन या सहेली से अनबन या चल रही हो, बोलचाल बन्द हो वह होली के दिन दोस्ती में बदल दी जाती थी। उस प्यारे से बचपन का यह प्यारा सा रिवाज आज भी याद आता है। महसूस होता है कि काश आज भी दुनिया में वह प्यारी सी मासूमियत कहीं मिल पाती ???
आज के बदले परिवेश के लिए केवल नयी पीढ़ी को ही दोषी ठहराना कदापि उचित नहीं। आज की पीढ़ी से पूर्व वाली पीढ़ी भी
पाश्चात्य संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित रही है जिसके अनुसरण में हम अपनी पुरानी सुन्दर व सार्थक परम्पराओं से विमुख होते गए जैसे -फाग के गीत, होलिका दहन का पूजन करना, घर-आंगन में होलिका दहन, सामूहिक दीवाली पूजन, घर में गोवर्धन पूजा, रक्षाबंधन पर सभी चचेरे भाई बहनों का साथ, खुद हाथों से मिठाई पकवान बना कर खिलाना, घर की बहुओं को सास द्वारा होली पर फाग की साड़ी (डंडिया) भेंट करना, घर आने वाले जंवाइयों दामादों को नेग देना, देवरों द्वारा भाभी को होली पर मिठाई व सुहाग के सामान के साथ पान भेंट करना, ये सभी प्यारी सी स्वस्थ परंपराएं पारिवारिक रिश्तों में स्नेह, सम्मान व अपनत्व मिश्रित जुड़ाव को पैदा कर संपूर्ण कुटुम्ब को प्रगाढ़ स्नेह की मजबूत डोर में आबद्ध करती थी।
प्राचीन समय में हम भारतीयों में से अधिकांशतःकृषि पर ही आश्रित थे तथा फसलों के पकने व मौसम परिवर्तन के उल्लास के साथ हर त्योहार के माध्यम से मनुष्य मौसम के बदले मिजाज के साथ सामंजस्य बैठाते हुए अपने दैनंदिनी जीवन में सतरंगी खुशियों की प्रविष्टि करता था। होलिका दहन का भी अत्यंत गूढ़ व गहन भावार्थ था। इसका अर्थ जीवन की नकारात्मकता एवं बुराइयों को अग्नि में स्वाहा करना होता था।दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत, रक्षाबंधन स्नेह व रक्षा का पर्व और दीपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय का उत्सव अर्थात् हर पर्व एक सीख व सार्थक संदेश देता था जो परिवार को एकता के सूत्र में बद्ध करता था।
आज हम समयाभाव का राग अलाप कर इन रीति रिवाजों से कन्नी काटते नजर आते हैं। यही कारण है कि पारिवारिक विघटन, एकल परिवार व विवाह विच्छेद पग-पग पर दृष्टि गोचर हो रहा है यहां तक कि युवा वर्ग में विवाह जैसी चिरस्थाई स्थापित संस्था पर से विश्वास उठता जा रहा है। यदि हम चाहें तो अपने प्रिय पर्वों के वृहत स्वरूप को छोटा किन्तु खूबसूरत रूप देकर अपने प्रिय पर्वों को उत्साह पूर्वक मना सकते हैं और इस प्रकार हम अपनी विरासत की पुरानी पारिवारिक प्यारी सी सांस्कृतिक परंपरा रूपी धरोहरों को अपनी आगामी पीढ़ियों को किसी न किसी रूप में हस्तांतरित अवश्य कर सकेंगे। यह मेरी सोच है, हो सकता है आपकी सोच कुछ अलग हो।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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