कैसे कहे
अपने ज़ज़्बातों को,
ज़ुबाँ पर लाने से हैं डरते।
दूर ना हो जाओ,
यही सोचकर चुप हैं रहते।।
तुम हो एक,
उन्मुक्त पवन का झौंका।
जिसकी शीतलता से,
हम गदगद हो जाते।।
ना हो अगर,
तुम पास मेरे।
सपने भी,
अधूरे रह जाते ।।
कल्पना नहीं हैं,
बिना तुम्हारे इस जीवन की ।
एक बंधन हैं बीच में,
जो इसे अटूट हैं बनाता ।।
कुछ मीठे से,
अहसास हैं ।
जो हमें कुछ कहने को,
मज़बूर करते हैं ।।
पर क्या करे,
अपने जज़्बातों को हम,
जुबां पर लाने से हैं डरते ।
दूर ना हो जाओ,
यही सोचकर चुप हैं रहते।।
महेश कुमावत