कैलेंडर
निश्चित है दीवार इसे अब बदलेगी,
प्रासंगिकता खो बैठा है कैलेंडर।
दीवारों की छाती चढ़ते,
नई नवेली तारीखें कब सोच सकी हैं,
दिन बदलेंगे।
दिन बदलेंगे और
जनवरी बूढ़ी होगी,
अक्टूबर के पर निकलेंगे।
पर निकलेंगे, वक्त पखेरू उड़ जायेगा।
उड़ जायेगा, और रुकेगा किसी शाख पर।
वहीं, जहाँ पर साँस बर्फ सी जम जाएगी।
जम जाएगी, और उसी ढेरी पर चढ़कर,
फिर से नया कैलेंडर टाँगा जायेगा।
नया समेटा, बीता फेंका जायेगा।
दीवारों ने हाथ किसी का झटक दिया,
कोई गले कील के पड़ इतरायेगा।
इतराएगा, इतराने में भूलेगा।
दिवस, माह का हाथ पकड़कर झूलेगा।
झूलेंगे, हम आप झमेले में यूँ ही।
जश्न पुराने, मातम नए मनाएँगे।
दिन गिन लेंगे, समय कहां गिन पाएँगे।
अपनी अपनी दीवारों के कैलेंडर,
हम तुम भी इक रोज़ उतारे जायेंगे।
© शिवा अवस्थी