कैद अधरों मुस्कान है
ग़ज़ल
ज़िंदगी जीना कहाँ आसान है
कैद अधरों पर हुई मुस्कान है
रो रहा घर आज अपनों के लिए
गाँव आँगन द्वार सब वीरान है
घूमते हैं जो सियासत की गली
खूब अब उनकी वहाँ पहचान है
थे कभी अनजान हम जिससे वही
बात कर दिल का हुआ मेहमान है
मोल करता आदमी का आदमी
बन गया धनवान ही भगवान है
आ गई है सभ्यता में अब कमी
लुप्त वृद्धों का हुआ सम्मान है
सिद्ध करता जो ‘सुधा’ है तारिका
ज्ञान का भंडार ये विज्ञान है
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
वाराणसी ,©®