कैदी
कुछ बेवज़ह उदासियाँ
बेवज़ह-सी उक़ताहट
बाँधता अदृश्य- सा है
पाश हमको यदाकदा
देख लेते हैं जमाने की
नज़र में ख़ामियां तब
होकर रह जाते हैं अपने
दायरे में क़ैद हम
फिर हो जाती है इंतेहा
हम छूट जाते क़ैद से
वक़्त भी देता नही
हमको इज़ाजत पाश की
कह देता मेरा हाथ पकड़
जीता जा अपनी जिन्दगी ।