केवल मृत्यु ही निश्चित है / (गीत)
केवल
मृत्यु ही
निश्चित है ।
धधक रही
मरघट की ज्वाला
बाहर – बाहर
नगर, गांँव के ।
प्रचलित होते
भीतर – भीतर
अंधे किस्से
धूप – छांँव के ।
घाट अनिश्चित,
पाट अनिश्चित,
संबंधों की
बाट अनिश्चित ।
पथ भी
आगे जा
विचलित है ।
बाहर – बाहर
सत्य धधकता
भीतर – भीतर
अंधियारा है ।
निश्चित नहीं
यहां पर कुछ भी
पूर्ण अनिश्चित
जग सारा है ।
ध्यान अनिश्चित,
ज्ञान अनिश्चित,
ख़ोज पूर्ण
विज्ञान अनिश्चित ।
श्रद्धा,
पूजा सब
विगलित है ।
जो दिखता है
जितना सुलझा,
वो भी उतना
ही उलझा है ।
उलझ रहा है
जीवन फंदा
दिखता है
जैसे सुलझा है ।
हंसी अनिश्चित,
ख़ुशी अनिश्चित,
पार उतर
बेकसी अनिश्चित ।
माथे
पर, ठप्पा
अंकित है ।
भ्रम फैलातीं
हाथों में कुछ
खिंचीं लकीरें
मक्कारी कीं ।
पांवों में भी
बंधीं बेड़ियां
छल,छद्मों कीं,
लाचारी कीं ।
धर्म अनिश्चित,
कर्म अनिश्चित,
और भाग्य का
मर्म अनिश्चित ।
उठा
हुआ हर
हाथ पतित है ।
केवल
मृत्यु ही
निश्चित है ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली), सागर
मध्यप्रदेश ।
मोबाइल – 8463884927