कॅरोना महामारी में स्कूल खोलना क्या उचित?
विदेशों में स्कूल खुलने से पहले बच्चों का कोरोना टेस्ट , भारत मे स्कूल खोलना क्या जरूरी?
#पण्डितपीकेतिवारी (सह-सम्पादक)
कोरोनावायरस महामारी के चलते दुनियाभर में सोशल डिस्टेंसिंग का सख्ती से पालन किया जा रहा है. लोग एक दूसरे से व्यक्तिगत रूप से मिलने के बजाए इंटरनेट या फोन के जरिए ही बात कर रहे हैं. पढ़ाई भी ऑनलाइन की जा रही है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग के नियम का पालन स्कूलों में भी किया जाएगा.
भारत सहित पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से पैदा हुए हालात के चलते बीते फरवरी-मार्च से स्कूल और कॉलेज बंद हैं. बीते कुछ दिनों से ऐसी खबरें आ रही थीं कि केंद्र सरकार ग्रीन और ऑरेंज जोन वाले इलाकों में स्कूल और कॉलेज खोलने वाली है. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ़ कर दिया है कि सरकार हाल-फिलहाल ऐसा कोई कदम नहीं उठाने जा रही है. भले भारत सरकार स्कूल खोलने पर विचार न कर रही हो, लेकिन दुनिया के कई ऐसे देश हैं, जहां कोविड-19 महामारी के दौरान इन्हें खोल दिया गया है. आइये जानते हैं कि इन देशों में इस समय स्कूल किस तरह से काम कर रहे हैं और यहां की सरकारों ने कोरोना संकट के दौरान भी स्कूल खोलने का खतरा क्यों उठाया है.
अब हम बात करते हैं जर्मनी की तो जर्मनी में हजारों बच्चों पर टेस्ट कर पता लगाया जा रहा है कि कहीं वे चुपचाप कोरोना फैलाने का काम तो नहीं कर रहे हैं. स्कूलों के खुलने पर माता पिता को वायरस के मामले बढ़ने का डर भी सता रहा है.
लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों को घर में बैठने पर मजबूर किया. लेकिन फ्रंटलाइन वर्करों यानी डॉक्टर, नर्स, पुलिस इत्यादि का काम इस दौरान और बढ़ गया. भारत की ही तरह जर्मनी में भी स्कूल बंद हुए लेकिन फ्रंटलाइन वर्करों के बच्चों के लिए नहीं. ये बच्चे स्कूल, किंडरगार्टन और डे केयर जाते रहे. इस बीच इन पर अपने माता पिता से संक्रमित होने और उस संक्रमण को स्कूल में फैलाने का खतरा बना रहा. अब जब स्कूलों को पूरी तरह खोलने की बात चल रही है, तो आखिरकार यह बहस शुरू हो गई है कि क्या बच्चे वाकई सुरक्षित रहेंगे. स्कूलों को कब और कैसे खोलना है, जर्मनी में हर राज्य, हर शहर इसका फैसला खुद ले रहा है. ऐसे में कई शहरों में बच्चों को ले कर रिसर्च भी चल रहे हैं.
जर्मनी के बॉन शहर के मेडिकल कॉलेज में पता लगाया जा रहा है कि बच्चों और टीचरों पर कोरोना का कितना खतरा है. पहले चरण में 80 बच्चों का टेस्ट किया गया है. रिसर्च करने वाले मार्टिन एक्सनर ने स्थानीय अखबार गेनराल अनसाइगर से बातचीत में कहा, “महामारी की शुरुआत में बच्चों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था.” उन्होंने बताया कि रिसर्च के केंद्र में यह सवाल है कि बच्चों का कोरोना वायरस फैलाने में कितना योगदान होता है. ऐसा मुमकिन है कि बच्चे वायरस से संक्रमित होते हों लेकिन उनमें लक्षण ना दिखते हों. ऐसे में वे दूसरों को और खास कर अध्यापकों को बीमार कर सकते हैं. मौजूदा शोध इस पर ठोस जानकारी देगा.
स्कूलों में सोशल डिस्टेंसिंग नामुमकिन
इसके अलावा स्कूल जितनी भी कोशिश कर लें लेकिन वहां सोशल डिस्टेंसिंग को लागू करना मुमकिन नहीं है. मार्टिन एक्सनर कहते हैं, “बच्चे करीब रहना चाहते हैं. साथ ही छोटे बच्चों से हर वक्त मास्क लगाने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.” इस शोध के लिए एक से छह साल तक के बच्चों के स्वॉब टेस्ट किए जा रहे हैं. रिसर्चरों का कहना है कि वे यह देख कर हैरान थे कि बच्चे कितनी आसानी से इसके लिए तैयार हो गए. इस टेस्ट में नाक या गले में एक लंबा सा ईयर बड जैसा दिखने वाला स्वॉब डाल कर सैंपल लिया जाता है. व्यस्क भी इसे मुश्किल और दर्दनाक टेस्ट बताते हैं. जून और जुलाई में इन बच्चों और इनके अभिभावकों के और भी टेस्ट किए जाएंगे ताकि अगस्त में स्कूल खुलने से पहले नतीजे सामने आ सकें. जर्मनी में जुलाई में गर्मियों की छुट्टियां होती हैं और अगस्त में स्कूल खुलते हैं.
इसी तरह ड्यूसलडॉर्फ में 5,000 बच्चों का टेस्ट करने का फैसला किया गया है. इन बच्चों की उम्र भी एक से छह साल के बीच होगी. लेकिन यहां स्वॉब टेस्ट का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, बल्कि बच्चों से एक बोतल में कुल्ला करने को कहा जाएगा और इसी सैंपल का टेस्ट किया जाएगा. वहीं बर्लिन में मशहूर शारीटे क्लीनिक के साथ मिल कर बच्चों के टेस्ट पर काम चल रहा है. यहां दस साल तक के बच्चों के सैंपल लिए जा रहे हैं. बच्चों के साथ साथ उनके माता या पिता में से किसी एक का टेस्ट भी किया जाएगा. कुल 10,000 लोगों के टेस्ट की योजना बनाई जा रही है. इनमें आधे बच्चे फ्रंटलाइन वर्करों के होंगे जिन्होंने कभी स्कूल जाना बंद नहीं किया था और आधे ऐसे जो लॉकडाउन के दौरान घर पर रहे. शोध में बच्चों के शरीर में बने एंटीबॉडी पर खास ध्यान दिया जाएगा. यह भी पता लगाने की कोशिश की जाएगी कि एक बार एंटीबॉडी बन जाने पर क्या बच्चे कोरोना वायरस से इम्यून हो गए हैं. हैम्बर्ग में इसी तरह 6,000 बच्चों पर टेस्ट किए जा रहे हैं.
इतने सारे रिसर्च की क्या जरूरत है?
जर्मनी में इस तरह का सबसे पहला रिसर्च हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी में हुआ. कुल 2,500 बच्चों और उनके माता पिता के टेस्ट किए गए. इनमें पॉजिटिव मामले ना के बरार थे. एक से दो फीसदी लोगों के शरीर में एंटीबॉडी मिले. इसका मतलब यह हुआ कि इन लोगों को संक्रमण हुआ था लेकिन शरीर खुद ही वायरस से निपटने में सक्षम रहा. इस रिसर्च के सामने आने के बाद देश भर में स्कूल खोलने की बात शुरू हो गई. कुछ जगह स्कूल खुले और संक्रमण के मामले भी सामने आने लगे.
ऐसे में सिर्फ एक रिसर्च पर निर्भर ना रह कर जगह जगह अलग अलग तरह की रिसर्च शुरू हुई. उम्मीद की जा रही है कि अगले दो महीनों में इन सब के नतीजों को मिला कर इनकी तुलना की जा सकेगी. वैज्ञानिक रूप से जब प्रयोगशाला में कोई रिसर्च की जाती है, तो उसके नतीजे प्रकाशित करने से पहले कई चरणों से गुजरते हैं. लेकिन कोरोना के मामले में स्वास्थ्य आपातकाल होने के चलते हर जानकारी जल्द से जल्द प्रकाशित हो रही है. जानकारों का मानना है कि इससे गलत नतीजों पर पहुंचने और इनके परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा गलत फैसले लेने का खतरा बढ़ रहा है.
कोरोना वायरस 65 से ज्यादा उम्र वाले लोगों पर सबसे अधिक असर करता है. चीन में हुआ एक शोध दिखाता है कि 15 से 64 की उम्र के लोगों को जितना खतरा है, 14 साल तक के बच्चों को उससे तीन गुना कम खतरा होता है. इस वायरस की शुरुआत भले ही चीन से हुई थी लेकिन इस बीच दुनिया के 14 देशों में संक्रमित लोगों की संख्या चीन से ज्यादा हो चुकी है. ऐसे में देश चीन में हुए शोध पर अब बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर रहे हैं.
#डेनमार्क में
कोरोना वायरस के इस संकट के दौरान यूरोप में सबसे पहले डेनमार्क ने अपने स्कूल खोलने का निर्णय लिया. यहां की सरकार ने दो चरणों में स्कूल खोले. पहले 15 अप्रैल को पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चों के लिए स्कूल खोले गए और फिर बीते हफ्ते छठवीं से नौवीं कक्षा के बच्चों को भी स्कूल जाने की इजाजत दे दी गयी. डेनिश स्वास्थ्य प्राधिकरण ने इसके लिए अलग से दिशानिर्देश जारी किए. डेनमार्क में स्कूलों में सुबह की प्रार्थना सभा पर रोक लगा दी गई है. क्लास रूम में एक डेस्क पर केवल एक ही बच्चे को बैठने की अनुमति दी गई है और दो डेस्कों के बीच में कम से कम दो मीटर की दूरी रखी गयी है.
छात्रों को घर से स्कूल के लिए निकलते समय, स्कूल परिसर में प्रवेश करते समय, खाने से पहले और बाद में एवं खांसी या छींक आने के तुरंत बाद हाथ धोने के निर्देश दिए गए हैं. खेल के मैदान में केवल 10 साल की उम्र तक के बच्चों को 5-7 के ग्रुप में खेलने की ही अनुमति है. दिशानिर्देशों के अनुसार एक ग्रुप के बच्चे हर रोज केवल उसी ग्रुप में खेल सकते हैं और केवल ऐसे खेलों की ही अनुमति दी गई है जिनमें बच्चों के बीच शारीरिक सम्पर्क न हो सके. स्कूल में बच्चों के हाथ मिलाने और साथ बैठकर खाने पर भी रोक लगी हुई है. शौचालयों और सभी ऐसी सतहों को दिन में कई बार सेनिटाइज किया जाता है जिन्हें बच्चे बार-बार छूते हैं.
#नॉर्वे में
नॉर्वे में जब कोरोना वायरस के मरीजों की संख्या में दो हफ्ते तक गिरावट बनी रही तो वहां की सरकार ने स्कूलों को खोलने का फैसला किया. पहले 20 अप्रैल से किंडरगार्टन एवं नर्सरी और फिर 27 अप्रैल से छह से 10 साल की उम्र के बच्चों के लिए स्कूलों को खोला गया. स्कूलों को सुरक्षित बनाने के लिए नॉर्वे के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सख्त दिशानिर्देश जारी किये. दिशानिर्देशों के तहत किंडरगार्टन में एक टीचर को तीन साल की उम्र तक के केवल तीन बच्चों को ही संभालने की जिम्मेदारी दी गई है. नॉर्वे में माता-पिता को स्कूल के लिए निकलते समय बच्चे के शरीर का तापमान मापना जरुरी है. इसके बाद स्कूल में भी एक बार बच्चे की थर्मल स्क्रीनिंग की जाती है. मैदान में बच्चों को अलग-अलग ग्रुप में खिलाया जाता है, ऐसे खिलौने ही इस्तेमाल किये जाते हैं, जो आसानी से धोये जा सकें. स्कूलों को यह निर्देश भी दिया गया है कि सभी टीचर एक-दूसरे से एक मीटर की दूरी बनाये रखें और कम से कम हर एक घंटे के बाद 20 सेकेंड तक हाथ धोएं.
स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देशों के तहत पहली से पांचवीं तक की कक्षाओं में अधिकतम 15 बच्चे ही बैठाए जा सकते हैं. प्रत्येक डेस्क के बीच में कम से कम तीन फीट की दूरी होनी चाहिए. डेस्क को रोज धोना भी अनिवार्य है. नॉर्वे में एहतियात के तौर पर ज्यादातर स्कूल कमरों के बजाय खुले वातावरण में बच्चों को पढ़ा रहे हैं. नॉर्वे की सरकार की ओर से यह भी कहा गया है कि किंडरगार्टन के बच्चों के लिए रोज स्कूल आना अनिवार्य नहीं है. लेकिन छह से 10 साल की उम्र का कोई बच्चा अगर स्कूल नहीं आ रहा है तो उसके माता-पिता को साबित करना होगा कि वह बच्चा बीमार है.
#फ्रांस में
फ्रांस ने अपने यहां बीती 11 मई को लॉकडाउन में ढील दी थी. इसी दिन से सरकार ने किंडरगार्टन और पहली से पांचवीं तक के स्कूलों को भी खोल दिया. इसके एक हफ्ते बाद ही 18 मई से माध्यमिक स्कूलों को भी खोलने की अनुमति दे दी गयी. सरकार के दिशानिर्देशों के अनुसार एक क्लास रूम में केवल 10 छात्रों को ही बैठने की इजाजत दी गयी है. और अभिभावकों को थर्मल स्क्रीनिंग के बाद ही बच्चों को स्कूल भेजने को कहा गया है.
फ्रांस में मास्क को लेकर भी स्कूलों के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं. किंडरगार्टन और नर्सरी के बच्चों के लिए मास्क लगाना प्रतिबंधित किया गया है, जबकि पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चों के मामले में मास्क लगाना उनके माता-पिता की इच्छा पर छोड़ दिया गया है. पांचवीं कक्षा से ऊपर के बच्चों और टीचर्स के लिए मास्क लगाना अनिवार्य है. स्कूलों में छात्रों और टीचर्स को कई बार हाथ धोने और एक-दूसरे से कम से कम एक मीटर की दूरी बनाए रखने के लिए कहा गया है. डेनमार्क और नार्वे की तरह ही फ्रांस में भी ऐसे खेलों पर प्रतिबंध लगाया गया है जिनमें बच्चे एक-दूसरे को छूते हैं. सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार फ्रांस में क्लास रूम्स के खिड़की-दरवाजे दिन भर खुले रहने चाहिए और छात्रों के आने से पहले और जाने के बाद उन्हें सेनिटाइज किया जाना चाहिए. कोरोना वायरस महामारी के दौरान फ्रांस के स्कूलों में अभिभावकों का आना प्रतिबंधित कर दिया गया है.
महामारी के दौरान भी स्कूल क्यों खोले गए?
बीती सात अप्रैल को जब नॉर्वे की प्रधानमंत्री एर्ना सोलबर्ग ने दो हफ्ते बाद स्कूल खोलने की बात कही थी तो बड़ी संख्या में लोगों ने इसका विरोध किया था. सोशल मीडिया पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ बड़ा कैम्पेन भी चलाया गया. लेकिन इसके बावजूद सोलबर्ग की सरकार ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे. उधर, फ्रांस में 11 मई से स्कूल खोलने के फैसले का पेरिस क्षेत्र के करीब 300 मेयर्स (महापौरों) ने विरोध किया था. सरकार को लिखे एक खुले पत्र में इनका कहना था कि यह फैसला जल्दबाजी भरा है. मेयर्स के विरोध के बाद भी फ्रांस की सरकार ने देश के करीब 40 हजार प्राइमरी स्कूल खोल दिए. इस फैसले के कुछ रोज बाद ही अलग-अलग स्कूलों में 70 से ज्यादा छात्र और अध्यापक कोरोना पॉजिटिव पाए गए. लेकिन इसके बाद भी वहां की सरकार ने स्कूलों को बंद नहीं किया. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी क्या वजह है कि सरकारों को महामारी के दौरान भी स्कूल खोलने पड़ रहे हैं.
बीती चार मई को फ्रांस के शिक्षा मंत्री जीन-मिशेल ब्लेंकर ने महामारी के दौर में भी स्कूल खोले जाने की वजह मीडिया को बताई. उनका कहना था कि अर्थव्यवस्था को फिर शुरू करने और उसे पटरी पर लाने में स्कूलों की भूमिका अहम है. उनके मुताबिक अगर किंडरगार्टन से लेकर 10 साल के बच्चों तक के स्कूल नहीं खोले गए तो लोग ऑफिस नहीं जा सकेंगे क्योंकि उन्हें घरों में अपने बच्चे संभालने होंगे. ऐसे में स्कूलों को खोलना जरूरी है.
हालांकि, फ्रांस, डेनमार्क और नार्वे की सरकारों ने केवल इसी एक वजह के चलते बच्चों को स्कूल भेजने का खतरा नहीं उठाया. जानकारों के मुताबिक कोरोना वायरस को लेकर बच्चों पर हुए कई अध्ययनों के नतीजों को देखकर और विशेषज्ञों की सलाह के बाद ही इन देशों की सरकारों ने स्कूल खोलने का फैसला किया. पिछले दिनों यूरोप और अमेरिका में हुए कई अध्ययनों में सामने आया है कि कम उम्र के बच्चों को कोरोना वायरस होने का खतरा वयस्कों की तुलना में काफी कम है. और अगर ये बच्चे संक्रमित हो भी जाते हैं तो इनके ठीक होने की संभावना काफी ज्यादा बनी रहती है.
हाल में जॉन हॉपकिंस सेंटर फॉर हेल्थ सिक्योरिटी द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक नौ साल तक की उम्र के बच्चों को कोरोना वायरस से संक्रमित होने का खतरा सबसे कम होता है. यह रिपोर्ट अमेरिका में 2,572 कोरोना संक्रमित बच्चों पर किये गए एक शोध पर आधारित है. रिपोर्ट के अनुसार कुल संक्रमितों बच्चों में से 15 फीसदी की उम्र एक साल से कम थी, जबकि 11 फीसदी बच्चे एक से चार साल तक की उम्र के थे. इसके अलावा 15 फीसदी बच्चों की उम्र पांच से नौ साल, 27 फीसदी की 10 से 14 साल है और 32 फीसदी कोरोना संक्रमित बच्चों की उम्र 15 से 17 साल के बीच थी. अध्ययन के मुताबिक कोरोना संक्रमित किसी भी बच्चे में वयस्कों की तरह संक्रमण गंभीर स्थिति में नहीं पहुंचा और सभी बच्चे बिना अस्पताल गए ही ठीक हो गए.
इसके अलावा कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि घर में ही बंद रहने का असर बड़ों की तरह बच्चों के भी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. यह भी एक कारण है जिसके चलते कई यूरोपीय देशों की सरकारों ने काफी परेशानी और खतरा उठाते हुए भी पूरी सावधानी के साथ अपने बच्चों को स्कूल भेजने का निर्णय लिया है.
#भारत मे
लगातार चालीस पचास दिन के लॉकडाउन के बाद अचानक एक दिन पाया गया कि शराब दुकानें खोल दी गई हैं, इतनी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गई थी पर यह आवश्यक ठहराया गया क्योंकि कदापि अर्थ व्यवस्था को बचाना था/है।
इतने दिनों से सब कुछ छोड़कर बैठे लोगों को लगा कि यह क्या हो रहा है, जब मेला लगाना ही था तब हमें घर में क्यों बंद रखा?
और अब एक नया नाटक आरंभ होने जा रहा है,
पर इस बार बिसात पर शराबी नहीं वरन् आपके हमारे बच्चे होंगे।
प्रदेश में एक जुलाई से स्कूल खोलने की बात की जा रही है,
जहां हम पर रोज नये नये नियम कानून थोपे जा रहे हैं, जैसे धारा १४४, सप्ताह में तीन दिन दुकान, सोशल (फिजिकल) डिस्टेंसिंग, शाम ५ फिर ६ और अब ७ बजे के बाद सब बंद, घूमने फिरने पर रोक,
अब स्कूल खोलने पर इन नियमों का क्या होगा, कौन इन छोटे बड़े बच्चों को मास्क (वह भी ठीक से) पहनाकर रखेगा, साबुन सैनिटाइजर का उपयोग सिखायेगा, और फिजिकल डिस्टेंसिंग की तो बात करना ही नहीं चाहिए, कौन ध्यान रखेगा इनका?
जब ये एक दिन की पिकनिक पर लापरवाही करते हैं, अपनी गपशप और फोन पर लगे रहते हैं तब रोज रोज की फिजिकल डिस्टेंसिंग, मास्क, सैनिटाइजर ये सम्भालेंगे ऐसा सोचना हमारी नादानी होगी।
अपने बच्चों को अभी तो स्कूल भेजना उचित ही नहीं है, ये लोग एक्सपेरिमेंट बेसिस पर स्कूल खोलेंगे, फीस लेंगे और कोरोना के केसेस बढ़ने पर स्कूल सबसे पहले बंद करेंगे।
बच्चों की सावधानी की क्या गारंटी होगी?
इतनी हड़बड़ी में, खासकर जब हम इस समय कोरोना इन्फेक्शन के पीक की प्रतीक्षा कर रहे हैं, हमारे नौनिहालों को कोरोना का चारा बनाकर तमाशा देखना कहाँ की बुद्धिमानी है?
यह तो स्पष्ट समझा जा सकता है कि यह मामला केवल फीस की रकम के अरबों की हेराफेरी से ही संबंधित है, वरना बच्चे यदि २-४ महीने बाद स्कूल में जायेंगे तो क्या अंतर पड़ना है?
और sinθ, cosθ का मान इन दो चार महीनों में बदलने वाला नहीं है।
वैसे भी हमारा स्कूल सिस्टम हमें विकट परिस्थिति में बचना (जिंदा बचे रहना) कभी भी नहीं सिखाता है।
यह तो हमें हाथ कैसे धोना चाहिए अथवा दांतों पर ब्रश ठीक से कैसे करना है यह भी नहीं सिखाता है।पर फीस लेनी हो तो बच्चों को कोरोना के सामने डालने से गुरेज नहीं करता है।
सामान्य वायरस जो हर साल बरसात, ठंड में फैलता है, पहले यह स्कूली बच्चों में एक से दूसरे में फैलता है। यह बच्चा घर जाकर घर के दूसरे बच्चों, फिर माता पिता, फिर बुजुर्गों में इन्फेक्शन फैलाता है और इस तरह से यह वायरस पूरे घर को अपने आगोश में ले लेता है। यह हर वर्ष की सच्चाई है।
कोरोना भी एक वायरस है जो लगभग इसी तरह से बच्चों के माध्यम से हमारे घरों में आगे फैलेगा।
जुलाई का महीना बरसात के मौसम का प्रारंभ है, इस पहली बारिश और उमस के कारण वायरस और बैक्टीरिया बड़ी तेजी से फैलते हैं, इस कोरोना लहर के सामने अपने बच्चों को झोंक देने का अर्थ नरभक्षी जानवर के सामने बच्चों को लड़ने भेजना जैसा है।
यदि आप अभी भी अपने बच्चों को जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं तो स्वयं से कुछ प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें:
क्या आप मान चुके हैं कि कोरोनावायरस का संक्रमण कम हो रहा है?
क्या कोरोना बच्चों को ज्यादा हानि नहीं पहुंचाता है?
ऑटो, टेंपो पर लटकते हुए बच्चों में फिजिकल डिस्टेंसिंग रह पायेगी?
स्कूल के टीचर, आया बाई, चपरासी, बस ड्राइवर, कंडक्टर, गार्ड सभी कोरोना टेस्ट में नेगेटिव साबित होने के बाद ही बच्चों के सामने लाए जायेंगे?
एक एक कक्षा में जहां ४०-५०-६० बच्चे होते हैं वहां ५-६ फीट की दूरी बनाए रखी जाएगी?
प्रार्थना स्थल पर तथा छुट्टी के समय जब बच्चे आपस में टकराते हुए निकलते हैं तब यह दूरी बनाए रखी जा सकेगी?
लगातार मास्क पहनने से शरीर में ऑक्सीजन की कमी (१७%तक) देखी गई है, बच्चों को ऑक्सीजन की जरूरत हमसे ज्यादा होती है, समय समय पर मास्क कैसे उतारना, पुन: कैसे पहनना, पानी पीने व टिफिन खाते समय मास्क कैसे हटाना, हाथ किस व कैसे सैनिटाइजर से कितनी देर तक कैसे धोना (रगड़ना) यह सब कौन बताएगा, पहले से काम के बोझ में दबा शिक्षक/शिक्षिका या स्कूल आपके पैसे से कोई नया कोरोना सुपरवाइजर नियुक्त करेगा?
क्या बच्चों में कोरोना मॉरटालिटि कम होना आपके हिसाब से काफी है ?
क्या बच्चे के इन्फेक्शन होने की अवस्था में स्कूल या शासन कोई जिम्मेदारी लेगा ?
इलाज के लाखों रूपए में कितना हिस्सा स्कूल या शासन वहन करेगा ?
कल को जब केसेस बढ़ेंगे, जो लगातार बढ़ रहें हैं, तब आपके गली मुहल्ले में होने वाली मौत आपको बच्चों समेत सेल्फ क्वाराईन्टिन को विवश कर देगी तब आपके बच्चे की पढ़ाई का साल और स्कूल में पटाई जा चुकी फीस का क्या होगा?
आपसे अनुरोध है कि एक जागरूक जनता और जिम्मेदार माता पिता बने और अपने बच्चों को कोरोना का ग्रास बनने न भेजें।
आप किसी भी धर्म को मानने वाले हों या किसी भी राजनीतिक पार्टी के समर्थक, यह जरूरी है कि इतनी जल्दी स्कूल खोलने का विरोध करें।
बच्चे हमारी सम्पदा से बढ़कर हैं, उन्हें हम दॉव पर नहीं लगा सकते हैं। जिन्हें पैसे कमाने हैं उन्हें कमाने दीजिए परन्तु इसके लिए हमारे बच्चे गोटियां नहीं बनेंगे।
आइए कोशिश करें कि स्कूल अभी न खोलें जाएं, हम सब मिलकर विरोध करेंगे तो बात बनेगी।