कृष्ण और राधा
हे कान्हा ! तुम मुझको ,कैसी हालत में छोड़ गए।
क्या ख़ता हुई बतला भी दो ,क्यो ऐसे मुँह मोड़ गए।
मैंने सपने में भी सोचा न था ऐसा भी कुछ कर दोगे,
हृदय कणिका कहते – कहते ,मेरा दिल क्यो तोड़ गए।
क्या अपनी इस राधा पर ,थोड़ा भी तरस नही आया?
मेरे बिरह को देख के क्या ,नयन बरस नही आया?
मेरे अथक प्रेम को तुम ,क्यों दिल से मेरे निचोड़ गए।
हृदय कणिका कहते – कहते ,मेरा दिल क्यो तोड़ गए।
कारण बतलाने में उम्र बिताया ,पर कुछ न तुम बतला पाए।
जिस प्रेम को बिरला कहते थे ,तुम उसको न कभी दिखला पाए।
जिन हाथों को थामा था क़भी और अपने हृदय से लगाया था,
न जाने क्यों कान्हा तुम ,उन हथेलियों को ही मरोड़ गए।
हृदय कणिका कहते – कहते ,मेरा दिल क्यो तोड़ गए।
अधूरे प्रेम की अधूरी कहानी ,जिसमे बीती सारी जवानी।
बिरहन बना के छोड़ दिया और कहते थे मुझे राधा रानी।
तुझसे ही मेरी साँसे थी और मैं तुझमे ही जिंदा थी,
क्यों मेरी साँसों की माला को ,तुम विरह से जोड़ गए।
हृदय कणिका कहते – कहते ,मेरा दिल क्यो तोड़ गए।
-सिद्धार्थ पाण्डेय