कृतघ्न
सब कुछ लेना उसका हक है,
कुछ देना उसकी जिम्मेदारी नहीं है।
परिवार, समाज, देश न बताओ उसको,
वह किसी की जागीरदारी नहीं है।।
देन है वो ऊपरवाले की,
वह किसी रिश्ते को नहीं मानता है।
खुद में मदमस्त फिरता है,
खुद को खुदा से कम नहीं मनाता है।।
रफतार आंधियों जैसी है उसका,
अहंकार धधकती ज्वाला है।
लौ देख हम क्यूं लगता है,
की ये दीपक बुझनेवाला है।।
जै हिंद