कुसंस्कार पर विशेष पहल
हमारा देश भारत युवाओं का देश माना जाता है,किन्तु आज समाज के वर्तमान परिदृश्य को देखा जाए तो हमारे समाज की युवा पीढ़ी संस्कार से विमुख होती जा रही है। हमारे समाज के लगभग तीन चौथाई युवा कुसंस्कार नाम के रोग से ग्रसित है । संस्कार ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा श्रृंगार होता है। जब कि कुसंस्कार हमारे जीवन मे कालिख के समान होता है। एक गहन विचार करने वाली बात यह है कि , क्या यह कुसंस्कार या फिर सुसंस्कार मनुष्य के भीतर जन्म से ही प्राप्त होती है? जी नही कोई भी बालक जन्म से संस्कार रहित होता है। किसी बालक के भीतर गुण – अवगुण,अच्छाई-बुराई के चिन्ह भी कहीं अंकित नही होता है । तो क्या ? हमने कभी विचार किया जब बालक के अंदर जन्म से अच्छाई – बुराई तथा गुण या दोष नही होते तो फिर यह कहाँ से प्राप्त होते है? किसी भी बालक के ह्रदय में यह कुसंस्कार नाम का रोग कहाँ से प्रवेश करता है? यह एक गहन विचार करने वाली बात है । इसके बारे में यह कहा जा सकता है कि माता -पिता के मुख से जो बात सुनी जाती है वही बात बालक के संस्कार बनती है। जिस प्रकार किसी गांव में स्थित नदी के तट पर बार – बार चलने मात्र से पगडंडी बन जाती है। उसी प्रकार माता-पिता की इच्छाएँ ही बालक के संस्कार बनती है। अगर उनके संतानो में कुसंस्कार या दोष दिखाई पड़ने लगता है,तो प्रत्येक माता-पिता यह देखकर आश्चर्य एवं घोर दुख से भर जाते है । उनका ह्रदय उनसे बार-बार यही प्रश्न करता है,की उनकी संतानो में यह कुसंस्कार आया कहाँ से ? हालांकि माता-पिता अनजाने में ही अपने संतान के भीतर कुसंस्कार के बीज बो देते है । जो बाद में उनके संतानो के भीतर ह्रदयरूपी भूमि पर कुसंस्कार का एक वृक्ष पनपता है । अपने संतान को सु संस्कारी एवं उनके ह्रदय को धर्ममय बनाने की आशा रखने वाले माता-पिता को अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना
क्या अनिवार्य नही है ? हमे आज के परिवेश में तेज़ी से फैल रहे कुसंस्कार के बीज को फैलने से रोकना नही चाहिए। आज बदलते परिवेश में कुसंस्कारी मनुष्य अपने आप को भौतिक रूप से समृद्धशाली कर के खुद को समृद्ध समझ रहा है,परंतु वह अपने ह्रदय से कभी भी समृद्ध नही हो सकता है । मनुष्य के सुसंस्कार ही उसे ह्रदय से समृद्ध बनाते है ।आज के युवा को इस कुसंस्कार जैसे रोग से बचने की आवश्यकता है।