कुल्हड़-जीवन की झलक।
मिट्टी से ही बनता कुल्हड़,
फिर मिट्टी में ही मिल जाता है,
कड़ी धूप में तपता कुल्हड़,
फिर आग में भी जल जाता है,
जब तक रहता अस्तित्व में कुल्हड़,
बस सोंधी खुशबू बिखराता है,
जीवन भी हम इंसानों का,
कुल्हड़ सा ही नज़र आता है,
आज जो है आंखों के आगे,
फिर कहां कभी नज़र आता है,
तप जाता कुल्हड़ जो धीमी आंच पे,
फिर रंग भी इसका खिल जाता है।
कवि-अम्बर श्रीवास्तव।