कुम्भकर्ण वध
सो रहा दानव विशाल
जगा उसको रहे सब अकाल
सेना का हाल होता बेहाल
उठाना था उसको तत्काल
आदेश दिया था लंकापति ने
उसको डरा दिया था रघुपति ने
हट तब भी न छोड़ना चाहता था
प्रलय से मुख न मोड़ना चाहता था
‘उठ जा भाई अब तुझसे आस
और कोई नहीं मेरे आस-पास
तू अकेला सब पे भारी है
तुझसे ये दुनिया हारी है
ये लंकेश तुझे पुकारे है
तेरा भाई तुझे गुहार है’
उठा कुम्भकर्ण सुन ये वचन
किया भ्राता को नमन
रावण ने आप-बीती सुनाई
उसको सुनके बोला भाई
‘भैया तुम तो हो बड़े ज्ञानी
फिर क्यों करते ये नादानी?!
श्रीराम को कुपित क्यों करते हो
क्यों मृत्यु का मन धरते हो
सिता माँ को लौटा दो भाई
इसमें ही है हम सबकी भलाई
वरना अंत हमारा निश्चित है
पराजय तुम्हारी सुनिश्चित है!’
‘कुम्भकर्ण तुम मेरे भाई
मत करो उस सन्यासी की बढ़ाई!
रणभूमि में युद्ध करो
अपने सामर्थ्य को सिद्ध करो
जाके मारो वह सन्यासी
रक्त से तर करो धरा प्यासी’
‘ये सच है की मैं चिंतित हूँ
पर आपके लिए सदैव समर्पित हूँ
अवश्य लडूंगा रण में मैं
लंका हेतु उपस्थित हर क्षण में मैं!
आज्ञा दे भैया जाता हूँ!
अपना कर्त्तव्य निभाता हूँ!
या तो राम को धूल चटाउँगा
या उनके हाथो से तर जाऊंगा!’
कुम्भकर्ण रण में आया
आते ही प्रलय मचाया
वानर सेना लाचार हुई
तभी रघुनन्दन की जयकार हुई
श्रीराम लड़ने को आये थे
कोदंड साथ में लाये थे
कोदंड से निकलता जो बाण था
करता लक्ष्य को संधान था
जब राम तीर चलते है
सब लक्ष्य समक्ष भिद जाते है
अचूक वार रघुनन्दन का
होता विषय अभिनन्दन का
कुम्भकर्ण खड़ा अचल था
भाई प्रति प्रेम उसका निश्छल था
उसने राघव को ललकारा
राम ने चुनौती को स्वीकारा
श्रीराम ने तीरो से वार किया
दानव के हाथो को बेकार किया
दो और तीर संधान हुए
दानव के पैर भी बेजान हुए
फिर राघव ने अंतिम तीर चलाया
कुम्भकर्ण का शीश धरा पे आया
ऐसे कुम्भकर्ण संघार किये श्रीराम
प्रभु के हाथो पहुंचा वैकुण्ठ धाम