* कुदरत का कहर*
कौन जिए अब किसके सहारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
चंद लम्हों में साबूत कुछ बचता नहीं,
अरमान अंदर दफ़न है, अब वो सजता नहीं।
हर तरफ मची है यहाँ चीख और पुकारें,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
डर और ख़ौफ़ का है चारो तरफ मंज़र,
नज़र के सामने मिटते हैं शहरों के शहर।
कुदरत जब खफा हो तो कुछ भी नहीं रहता हमारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
अपने ही बनाये आशियाने से अब डर लगता है,
अपने ही औलाद को अपनी नज़र लगता है।
हस्ती मिट रही सभी खड़े हैं मौत के किनारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
कफ़न ओढ़े अब हर रात गुजरती है,
मौत डर है या डर मौत इस बात से ज़िन्दगी सिहरती है
खून से लथपथ लाशों से रंगीन है नज़ारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
फासले मिट गए है अब मौत और ज़िन्दगी के,
बचा नहीं अब कुछ भी इंसान के पास खाली बेबसी के
सड़क से उठा आदमी अब सड़क पर लगा रहा कतारें,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
कुदरत के करिश्में से बचना है मुश्किल,
क्या पता किसके हाथ पतवार कहाँ है शाहिल।
कुदरत की सबसे अच्छी बनावट भी भगवान् को हो जाते प्यारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
कौन जिए अब किसके सहारे,
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
हर रोज अब यहाँ हिलती है मीनारें।
😇✍️हेमंत पराशर✍️