कुण्डलिया
बूँदे लेकर रसभरी , वसुधा को महकाय |
क्या है मन में मेघ के, कोई समझ न पाय ||
कोई समझ न पाय, किसे यह तर कर देगा,
कब तोड़ेगा आस, कहाँ जाकर बरसेगा,
नीरद करे निराश, न मन को सपने देकर,
बरसे रिमझिम नित्य, नृत्यरत बूँदे लेकर ||
बेसुध घन बरसा रहे, वहीँ अनवरत नीर |
जहाँ ह्रदय घायल पडा, सहता है नित पीर ||
सहता है नित पीर, विरह का पाला लेकर,
ख़ुशी गई है लौट , जिसे बस आँसू देकर,
उसे नहीं है काम, भिगोये क्योंकर वह तन,
जानें पर कब सत्य, बरसते ये बेसुध घन ||
~ अशोक कुमार रक्ताले.