कुण्डलिया
कुण्डलिया
सत्कर्मी पूँजी न ही , हृदय राम से प्यार।
निरा दंभ भ्रम पाप का ,खर सम ढोते भार।
खर सम ढोते भार, काल के हाथों पिटते।
चलते रहे कुमार्ग ,लेश नर- चरण न थकते।
गढ़ गढ़ नये कुपंथ, सत्य से हुए विधर्मी।
राम विमुख कहलाय, रहे खुद को सत्कर्मी?
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’
रामपुर कलाँ, सबलगढ(म.प्र.)