कुण्डलिया छंद
खिड़की को देखूँ कभी,कभी घड़ी की ओर,
नींद हमें आती नहीं ,कब होगी अब भोर।
कब होगी अब भोर ,खेलने हमको जाना,
मारें चौक्के छक्के, हवा में गेंद उड़ाना।
कह ‘अम्बर’ कविराय,पड़ोसन हम पर भड़की।
जोर जोर चिल्लाये ,देखकर टूटी खिड़की।
-अभिषेक कुमार अम्बर