कुछ हम निभाते रहे, कुछ वो निभाते रहे
आशिक़ी में ज़्यादा उम्मीद भी क्या करते,
हम वफ़ा करते रहे, और वो ज़फ़ा करते रहे।
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ज़माने की नज़र में रिश्ता कामयाब रहा,
कुछ हम निभाते रहे, कुछ वो निभाते रहे।
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जी भरकर नींद भी तो, न ले पाए हम-तुम,
कभी तुम जगाते रहे, कभी हम जगाते रहे।
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जाने कैसे काटते हो तुम रात-दिन हिज़्र में,
ख़ैर हम तो तुम्हारी ही ग़ज़लें गुनगुनाते रहे।
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ठीक थी मोहब्बतें खुले आसमां के नीचे फ़क्त,
सावन में गिरे जामुन, हम साथ-साथ जुटाते रहे।
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हम आईनों से उनकी एक तस्वीर माँगते रहे,
और वो रोज़ अपना अक़्स बदलते छुपाते रहे।