कुछ मुक्तक
अजीब सा साहिब जमाना या गया है
ऑन लाइन अब सिर झुकाना आ है
साथ कभी जो पलों की खुशबू थी
उन्हें भी ऑन लाइन महकना आ गया
लगता है ज्ञान विज्ञान इतना बड़ गया है
शब्द में ऊर्जा का भान ही बिगड़ गया है
हर तरफ सुनाई देता है डी जे का अब शोर
ढोलक की थाप पर संगीत उखड़ गया है
अध्यात्म भी अब मिल रहा दलालों की बस्ती में
धर्म गुल खिला रहा उन्हीं की चमकती हस्ती में
आत्म वोंध में जो निकले वो कहीं राह भटक गए
राजनीति में फल रहा जो जन्मा ज्ञान श्रावस्ती में