कुछ दोहे
निश्चित है मिलना उसे, जो जिसका है पात्र।
चिंतित होकर सूर्य तू, पाएगा दुख मात्र।।
निंदक से नजदीकियाँ, चापलूस से दूर।
जीवन का यह मंत्र लो, खुश रहो भरपूर।।
भाग्य भरोसे बैठे कर, मत रहना ऐ मीत।
कर्म बिना होता नहीं, जीवन मधुरिम गीत।।
जिसके मन में आ गया, अहंकार अभिशाप।
मिट जाएगा मूल से, वह तो अपने-आप।।
द्वेष हृदय जो पालता, पाता कष्ट असीम,
दुख देता है साथियों, जैसे चरस अफीम।।
स्वाद भले कड़वा लगे, देते लाभ असीम।
सेवन करना सूर्य तुम, मिर्च, करैला, नीम।।
गोभी परवल आजकल, रहते सौ के पार।
सब्जी बन पाती नहीं, सूर्य मसालेदार।।
दो बच्चों का बाप हूँ, सिंगल हूँ फिलहाल।
बीबी जबसे रूठ कर, चली गयी ससुराल।।
उत्सव ज्योति उमंग का, जगमग जलता दीप।
हर्ष और उल्लास सह, आते सभी समीप।१।
प्रेम हमारा आपसे, जैसे बाती-दीप।
जलना बुझना साथ हो, इतना रहो समीप।२।
जलना है तो यूँ जलो, जैसे जलता दीप।
प्रकाशित होता रहे, जो भी रहे समीप।३।
जीवन की जलती रहे, ज्योति सदा दिन-रात।
हर दिन जैसे पर्व हो, बन जाए हर बात।४।
रंगोली मिष्ठान सह, उत्सव का उल्लास।
पावन पर्व प्रकाश का, लाता सबको पास।५।
दीप, पटाखे जल रहे, बंँटे खूब मिष्ठान।
आई है दीपावली, लिए खुशी, मुस्कान।६।
रंगोली है द्वार पर, मन में है उल्लास।
उत्सव में दीपावली, लगती मुझको खास।७।
मँहगाई की मार से, उत्सव हुआ उदास।
दीप जले कैसे कहो, तेल नहीं है पास।८।
अपनों के सम्मुख रहो, बिल्कुल यार समीप।
जीवन भर जलते रहें, खुशियों वाले दीप।९।
हर्षित हैं धरती गगन, सूर्य, चाँद, नक्षत्र।
उत्सव आज प्रकाश का, है उमंग सर्वत्र।१०।
शुभ हो यह दीपावली, मिटे रोग संताप।
जग में खुशहाली रहे, सुखी रहें हम आप।।
दीपक कुछ ऐसा जले, रहे न मन में पाप।
काम, क्रोध, मद, लोभ से, दूर रहें हम आप।।
कविता दीपा आपको, है मेरा आशीष।
वर्तमान हो उज्जवल, चमको बन तावीष।।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा सूर्य