कुछ दोहे
शर्मिंदा जिसको करे, निज भाषा का ज्ञान।
ऐसा मूरख आदमी , होता पशु इंसान।।
हिंदी मेरा ओढ़ना, हिंदी है परिधान।
हिंदी लगती है मुझे, भाषा रस की खान।।
निज भाषा से हो जिसे, पीड़ा का अहसास।
फिर तो निश्चित जानिए, होना ही है नाश।।
गढ्ढा मुक्त सब हो रहे, सड़क गांव देहात।
सबके मुख से आ रहा, सिर्फ विकास क बात।
उर के भीतर आ गया, जबसे तू दिलदार।
नैन किवाड़ी बंद हैं, धड़कन पहरेदार।।
फुर्सत जब हो आइए, मिलते हैं हम आप।
मन में कुछ उलझन लिए, क्यों बैठें चुपचाप।।
लड़की बनकर भेजते, ब्वाय फ्रेंड रिक्वेस्ट।
मिल लो विडियो कॉल पर, फ्रेड बनो फिर बेस्ट।।
सदियों की दस्तूर है, दूध पी रहे नाग।
भूखे मरते साथियों, सिर्फ हम और आप।।
धागा मत समझो इसे, है यह इक विश्वास।
त्योहारों में है बहुत, रक्षाबंधन खास।।
धागा यह विश्वास का, होता है जी खास।
भ्रात बहन का प्रेम सह, रिश्तों का अहसास।।
जीवन भर जिसने कभी, किया नहीं सद्कर्म।
दुख-सुख,आंसू,गम,खुशी, समझ सके ना मर्म।।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा ‘सूर्य’